– अवनीश भटनागर
स्नातकों को उपदेश
स्वाभाविक रूप से दीक्षांत भाषण का उद्देश्य अपनी शिक्षा पूर्ण कर समाज जीवन में प्रवेश करने जा रहे उपाधि प्राप्त करने वाले स्नातकों को उनके जीवन की समुचित दिशा दिखाना होता है। महामना मालवीय जी केवल काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति नहीं थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन इस विश्वविद्यालय और उसके छात्रों के निर्माण और विकास के लिए समर्पित किया था। अतः यह उद्बोधन औपचारिक भाषण मात्र नहीं बल्कि अपने छात्रों के सम्मुख उनके हृदय के उद्गार थे। उन विचारों को ठीक उसी संकल्पना के साथ पाठक ग्रहण कर सकें इसलिए नीचे के कुछ पैराग्राफ में इस अवसर पर स्नातकों को मालवीय जी द्वारा दिए गए उपदेश का अविरल पाठ प्रस्तुत किया जा रहा है –
“मैं नवयुवक तथा नवयुवतियों से यह कहता हूं कि आप अपनी प्रतिज्ञाओं का स्मरण करें, जिन्हें आपने उपाधि प्राप्त करने के पहले मुझसे तथा मेरे द्वारा अपनी मातृ संस्था से किया है। उन उपदेशों को भी आप याद कर लें जिन्हें योग्य प्रो-वाइस-चांसलर ने आपको हमारे पूज्य ऋषियों की वाणी में सुनाया है। सत्य बोलो, शुद्धता से रहो तथा सत्य ही सोचो। जीवनपर्यंत विद्याभ्यास करते रहो, सदाचरण करो तथा किसी से भी ना डरो। केवल उन कार्यों से डरो जो निकृष्ट तथा त्याज्य हैं। सत्य तथा न्याय के लिए सदैव प्रस्तुत रहो। अपने भाइयों की सेवा प्रेम से करो। जहां कहीं भी तुम्हें सुअवसर मिले, भलाई करो। जो कुछ तुमसे हो सके, वह दान करो।”
जिस दिव्य सत्य की शिक्षा आपको इस विश्वविद्यालय में बार-बार दी गई है उसे स्मरण रखो। ध्यान रखो कि संपूर्ण सृष्टि एक ही है और इसका नियंता तथा व्यवस्थापक एक अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, शक्तिमान परमात्मा है। यह विश्व उसी अद्वितीय शक्ति का साक्षात्कार है। उपनिषदों में बताया है कि दृश्य अथवा अदृश्य, सबका कर्ता तथा भर्ता वही परमात्मा है। जब कभी आपको इस शक्ति के अस्तित्व में संदेह हो तो आप अपनी दृष्टि उस आकाश की ओर घुमाओ जो उन तारों और ग्रहों से सुशोभित है जो असंख्य युगों से मनोहारी ढंग से भ्रमण करते आए हैं; उस प्रकाश की ओर जो अत्यंत दूरस्थ सूर्य से पृथ्वी के जीवों की रक्षा के लिए आश्चर्यकारी वेग से यात्रा करके आता है। अपनी दृष्टि तथा मस्तिष्क को अपने शरीर रूपी अद्भुत मशीन की ओर झुकाओ जिसे परमात्मा ने आपको दिया है और इसकी अद्भुत बनावट और शक्ति पर गंभीरतापूर्वक विचार करो। अपने चारों ओर निगाह फेरो और सुंदर पशु-पक्षियों को, मनोहर वृक्षों को, कमनीय पुष्पों तथा स्वादिष्ट फलों को देखो। स्मरण रखो कि वह परमात्मा जिसे हम ब्रह्म अथवा ईश्वर कहते हैं इस संपूर्ण जीवधारी सृष्टि में उसी प्रकार विद्यमान है जैसे मुझमें या आपमें। यही सब धार्मिक उपदेश का तत्व है –
स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मरैव्यो न जातु चित्।
सर्वे विधिनिषेधः स्युरेतयोरेव किंकरा।।
ईश्वर को सदैव स्मरण रखो। उसे कभी न भुलाओ। सभी धार्मिक आदेशों तथा निषेधों का इन दो वाक्यों से पालन हो जाता है। यदि आप यह याद रखेंगे कि परमात्मा सभी जीवधारियों में विद्यमान है तो ईश्वर तथा अन्य जीवधारियो से आपका सच्चा संबंध सदा बना रहेगा। इसी विश्वास, कि परमात्मा सभी प्राणधारियों में विद्यमान है, से ही मूल उपदेशों का निर्माण हुआ है। जिनमें मानव धर्म के आदेशों तथा कर्तव्यों का समावेश हो जाता है जैसे –
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।
अर्थात दूसरों के प्रति कोई भी ऐसा आचरण न करो जिसे तुम अपने प्रति किए जाने पर अप्रिय समझते हो।
यद्यदात्कनिचेच्छेत तत्परस्यापि चिन्तयेत्।
यह दो प्राचीन आदेश मनुष्य मात्र के लिए आचरणीय हैं। यदि कोई आपकी घड़ी अथवा कोई अन्य वस्तु चुराए तो आपको दुःख होता है। इसी प्रकार दूसरों की कोई वस्तु चुरा कर आप उसे दुःख न पहुँचायें। जब आप बीमार या प्यासे रहते हैं उस समय आप चाहते हैं कि कोई आपको औषधि देता और आपकी प्यास बुझा देता। इसलिए यदि आपका कोई भाई या बहन उसी प्रकार की सेवा की आवश्यकता में हो तो आपका यह धर्म है कि उसकी सेवा करें। धर्म के यह ही दो स्वर्ण नियम हैं। धर्म तथा नीति की यही आत्मा है। यह एक बहुत ही पुरातन उपदेश है जो ईसा के जन्म से हजारों वर्ष पहले महाभारत में प्रशंसा पा चुका था। मैं किसी संकुचित विचार से ऐसा नहीं कहता। मेरा अभिप्राय यह है कि आपके हृदय में यह बात दृढ़ हो जाए कि ये प्राचीन उपदेश हमारे यहां परंपरा से चले आए हैं और हमारी अमूल्य बपौती हैं। यह केवल हिंदुओं ही के लिए नहीं है बल्कि सारी मनुष्य जाति की अमूल्य निधि हैं। आप इन्हें अपने हृदय में संचित कर लीजिए और मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर तथा मनुष्य दोनों के साथ आपका संबंध सत्य तथा प्रिय रहेगा।
आपको यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि यह देश आपका जन्म स्थान है। सभी बातों के विचार से इसके समान संसार में कोई दूसरा देश नहीं है। आपको इस बात के लिए कृतज्ञ तथा गौरवान्वित होना चाहिए कि उस कृपालु परमेश्वर ने आपको इस देश में पैदा किया। आपका इसके प्रति एक मुख्य कर्तव्य है। आपने इसी माता की गोद में जन्म लिया है। इसने आपको भोजन दिया, वस्त्र दिया तथा आपका पालन-पोषण करके आपको बड़ा बनाया है। यही आपको सब प्रकार की सुविधा, सुख, लाभ तथा यश देती है। यही आपकी क्रीड़ा भूमि रही है और यही आपके जीवन का कार्यक्षेत्र बनेगी तथा आपकी सभी आशाओं तथा उमंगों का केंद्र रहेगी। यही आपके पूर्वजों का कार्यक्षेत्र रही है। अतएव पृथ्वी के धरातल पर यही भूमि आपके लिए सबसे बढ़कर प्रिय और आदरणीय होनी चाहिए। इसलिए आपको अपने कर्तव्य की पूर्ति के लिए सदैव प्रस्तुत रहना चाहिए। अपने देशवासियों से प्रेम करो तथा उनमें एकता का विकास करो। आपमें सहनशीलता, क्षमा तथा निःस्वार्थ सेवा के भाव के विकास की आवश्यकता है। अपने छोटे भाइयों के उत्थान के लिए अधिक से अधिक समय तथा शक्ति लगाएं, साथ मिलकर काम करें, उनके शोक तथा आनंद में उनका हाथ बटाएं और उनके जीवन को सुखमय बनाने का प्रयत्न करें।
हम सब को इस बात का दुख है कि हमारे देश में अत्यधिक अज्ञान है। इसको दूर करने के लिए स्वराज्य प्राप्ति की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। इस बात का प्रण कर लें कि आप निरक्षरता को हटाने और भारतीयों में ज्ञान के प्रकाश के प्रचार के लिए संग्राम करेंगे। अपनी शक्ति का संगठन कीजिए। अपने अवकाश में एक नियम बना लीजिए कि आप गांव में जाकर गांव वालों के साथ काम करेंगे। दृढ़ हो जाइए कि इस अविद्या रूपी अंधकार को हटा देंगे जो अधिकांश जनता को आच्छादित किए हुए है। पाठशाला खोलिए और जनता को पढ़ना-लिखना, गणित सिखाइये। इसमें धर्म को भी जोड़ लीजिए। धर्म अर्थात सहनशीलता, क्षमा तथा प्रेमयुक्त सेवा का धर्म। इन चार बातों की शिक्षा प्रत्येक बालक-बालिका, प्रत्येक स्त्री, पुरुष और प्रत्येक युवा और वृद्ध को दीजिए। धर्म का त्याग मत कीजिए। पढ़ने और पढ़ाने में मनुष्य मात्र में सुख तथा एकता का संचार होगा। शिक्षा का प्रचार अत्यंत व्यापक ढंग से कीजिए। अपनी शिक्षा द्वारा अपने भाइयों की स्वच्छता, स्वास्थ्य तथा व्यायाम की उन्नति में सहायता कीजिए। आप लोग शिक्षा समिति स्थापित करें और निरक्षरता तथा अज्ञान के विरुद्ध संग्राम छेड़ दें, जिसका रह जाना हम लोगों के लिए लज्जा की बात है। देश के सभी शिक्षित नवयुवकों को इस महान कार्य में हाथ बंटाने के लिए निमंत्रित कीजिए। हमें केवल मिलकर कार्य प्रारंभ कर देना है। हमारे प्रयास में सफलता अवश्य होगी।
जीवनपर्यंत ईश्वर तथा देश के प्रति अपने कर्तव्य-पालन का ध्यान रखिए। ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्य का स्मरण केवल मनुष्य के प्रति ही नहीं बल्कि परमात्मा के बनाए सभी निरीह जंतुओं के प्रति भी भ्रातृभाव, दया तथा सहानुभूति का संचार करेगा। स्वदेश के प्रति अपने कर्तव्य का ध्यान आपको उसके हित तथा सम्मान की रक्षा के लिए सब कुछ न्यौछावर एवं बलिदान करने को सदैव प्रस्तुत करने में सहायक होगा। आप अपने देश में स्वराज्य की इच्छा करते हैं तब आपको इसकी आवश्यकता अनुसार सब कुछ बलिदान करने के लिए सदैव प्रस्तुत रहना ही पड़ेगा। आपने अपने अध्ययन काल में स्वदेश अथवा विदेश में स्वतंत्रता प्राप्ति अथवा स्वतंत्रता रक्षा के लिए होने वाले आंदोलनों का इतिहास पढ़ा होगा। आपने शूरता तथा आत्म बलिदान के भावों से व्याप्त संस्कृत तथा आधुनिक भारतीय साहित्य का भी अध्ययन किया होगा। आपने इंग्लैंड के साहित्य में अनेक ऐसे अवतरणों को पढ़ा होगा जिनमें उस देश की स्वतंत्रता, शूरता तथा दृढ़ता से फ्रांस तथा इंग्लैंड के सुकुमार बालकों ने विजय प्राप्त करने तक युद्ध को जारी रखा और इस प्रकार अपनी मातृभूमि के लिए अमिट गौरव प्राप्त किया। मैं आपको मातृभूमि के गौरव के लिए उसी प्रकार के स्वातंत्र्य प्रेम तथा आत्म त्याग की भावना का अपने में संचय करने का उपदेश देता हूं। केवल इसी तरह से हम लोग पुनः एक शक्तिशाली राष्ट्र बना सकते हैं।
“यदि इस शिक्षा के द्वारा आपके हृदय में देश को स्वतंत्र तथा स्वशासित देखने की इच्छा का संचार न हो सका तो आपकी शिक्षा व्यर्थ ही कही जाएगी। आप इस इच्छा को लेकर और इसकी शीघ्र सफलता के लिए जो कुछ भी कष्ट आपको उठाने पड़ें, उनको सहने के लिए तैयार हो जाएं। नागरिक का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य है कि वह मातृभूमि के सम्मान की रक्षा के लिए अपने जीवन का बलिदान कर दे। किन्तु वही कर्तव्य आपको यह भी सीख देता है कि देश सेवा के लिए जीवन को सुरक्षित रखा जाए और जोश में आकर शीघ्र समाप्त न कर दिया जाए। आप अपने उत्तरदायित्व को समझते हुए शुद्ध भाव से उपयुक्त संरक्षकता में रहकर देश की स्वतंत्रता के लिए अपना कार्य करें, मैं शुद्ध हृदय से यह आशा करता हूं।”
मैं इस लंबे व्याख्यान को एक सुंदर प्रार्थना से समाप्त करता हूं जो सम्राट पंचम जॉर्ज तथा महारानी मेरी ने हजारों आदमियों की भीड़ के साथ वेस्टमिनिस्टर एबे में गत 7 जुलाई को गाई थी। मैं पंडित राम नारायण मिश्र का इसके लिए कृतज्ञ हूं कि वह उस समय वहां मौजूद थे और उन्होंने इसकी ओर ध्यान दिलाया। मेरी अभिलाषा है कि आप सब इसको कण्ठाग्र कर लें –
मेरे प्यारे देश,
सकल विश्व के वैभव से भी बढ़कर प्यारे देश।
मेरा पूर्ण अमल सुस्नेह,
निश्छल, निश्चल, निश्चय स्नेह।
बलि होने को उद्यत स्नेह।
तेरी बलिवेदी पर अर्पित,
निज सर्वस्व प्राण और देह।
मेरे प्यारे देश,
सकल विश्व के वैभव से भी बढ़कर प्यारे देश।
मेरे प्यारे देश।27
वन्दे मातरम्!
(लेखक विद्या भारती के अखिल भारतीय मंत्री और संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र के सचिव है।)
संदर्भ:
क. लाल, प्रो. मुकुट बिहारी: महामना मदन मोहन मालवीय – जीवन और नेतृत्व, मालवीय अध्ययन संस्थान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (1977)
ख. दर एवं सोमस्कंदन्: हिस्ट्री ऑफ द बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, पृष्ठ 572-73
ग. महामना के विचार – एक चयन: (सं.: प्रो. अवधेश प्रधान), काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी। तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय पूर्व छात्र समागम, 2007
और पढ़ें : महामना मदनमोहन मालवीय का दीक्षान्त भाषण – 14 दिसम्बर 1929 (भाग चार)