– डॉ. कुलदीप मेहंदीरत्ता
भाषा के बिना एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य से सार्थक संवाद होना एक अत्यंत दुष्कर कार्य है अत: भाषाओं की परस्पर सहभागिता और भावों की परस्पर अनुपूरकता के बिना किसी भी देश के स्वतंत्रता संग्राम के लिए समाज में प्रेरणा जगाने का कार्य तो लगभग असम्भव है। सम्पूर्ण विश्व का इतिहास उठाकर देख लीजिये, मातृभाषा के बिना समाज और राष्ट्र जागरण का कार्य संभव नहीं हो पाया है। भाषा और साहित्य ने केवल भारत ही नहीं, अपितु विश्व के कई देशों में स्वतन्त्रता की भावना को जगाया। अमेरिका की क्रांति में जोनाथन, डिकिन्सन और थॉमस पेन के द्वारा लिखे गए पेम्प्लेट्स का अतुलनीय योगदान माना जाता है। जिनसे प्रेरणा पाकर अमेरिका के लोगों ने ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध संघर्ष किया और स्वतंत्रता प्राप्त की। इसी प्रकार फ्रांस की क्रांति में फ्रांसीसी साहित्य की अद्वितीय भूमिका मानी जाती है। वोल्टेयर, मोंतेस्क्यु, रूसो तथा दिदेरो जैसे लेखकों ने साहित्यिक अनुष्ठान के द्वारा फ्रांस में राष्ट्रीय चेतना के जागरण और प्रसार का कार्य किया।
प्राचीन काल से हमारे देश भारत की एक विशिष्टता है कि आकार और संस्कृति की दृष्टि से यह अत्यंत विशाल रहा है। जब यातायात और संचार के आधुनिक संसाधनों का अभाव था तब भी अन्यान्य धार्मिक-सांस्कृतिक और सामाजिक अनुष्ठानों के लिए समस्त भारत की जनता एकत्र होती थी। जबकि यूरोप आदि समाजों में भौगोलिक दृष्टि से छोटे-छोटे राष्ट्र रहे है। वेस्टफेलिया की संधि के बाद पाश्चात्य वैचारिक आधिपत्य ने राष्ट्र की परिभाषा को एक नस्ल तथा इतिहास की समान सामूहिकता या जातीयता तक सीमित कर दिया था। इस दृष्टि से भारत को एक राष्ट्र न समझकर कई राष्ट्रों का समूह माना जाने लगा। इस मत के समर्थक यह समझने में असमर्थ रहे कि भले ही औपचारिक राजनीतिक ढांचों में अंतर दिखाई पड़ता हो- भारत देश की सांस्कृतिक आत्मा एक ही है बल्कि इसे राम-कृष्ण-संत-योग आदि के प्रभाव ने इस प्रकार गूंथ रखा है कि भारत का कोई भी कोना इस एकीकृत सांस्कृतिक सुगंध से कभी अछूता नहीं रहा। इसीलिए विभिन्न स्वतंत्रता संग्राम के युग में भारतीय भाषाओं में से रचे गए साहित्य का एक ही लक्ष्य था भारतीयों के ह्रदय में जल रही स्वतंत्रता की ज्वाला की अभिव्यक्ति करना। इस लक्ष्य में इन भाषाओं के माध्यम से तात्कालिक समाज के भावों की तीव्र और सघन अभिव्यक्ति हुई।
राष्ट्रभक्ति और स्वतंत्रता प्राप्ति की इस तीव्र उत्कंठा ने भाषाई ज्ञान और क्षेत्रों की भौगोलिक सीमा को तोड़ दिया। 1857 की क्रांति पर सुभद्रा कुमारी चौहान ने लिखा, “सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आयी फिर से नयी जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की क़ीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी”। इस कविता की पंक्तियों जैसा साहित्य हिंदी में रचा गया जिसने राष्ट्रीय साहित्य को हिंदी भाषी क्षेत्रों से इतर अहिंदी भाषी क्षेत्रों में पहुंचाया। हिंदी भले ही उत्तर भारत की भाषा के रूप में स्थापित हो, लेकिन भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं एवं साहित्य ने हिंदी को भी अत्यंत समृद्ध किया है। बहुत सी साहित्यिक कृतियों ने क्षेत्रीय भाषाओं के भौगोलिक प्रसार का अतिक्रमण करते हुए हिंदी भाषी क्षेत्रों में अपनी सुगंध बिखेरी।
बंकिम चन्द्र चटर्जी का लिखा उपन्यास ‘आनंदमठ’ बंगला भाषा में लिखा गया एक ऐसा उपन्यास था जिसने हजारों-लाखों लोगो को मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया। ‘आनन्दमठ’ राष्ट्रीय चेतना के अजस्त्र प्रवाह का ऐसा उपन्यास था जिसका हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया। इसी उपन्यास में से हमारे राष्ट्रीय गीत ‘वन्दे मातरम्’ को लिया गया जिसको गाते हुए भारत के कोने कोने में वीर क्रांतिकारियों ने सहर्ष बलिदान दिए। इसी प्रकार संस्कृत, कन्नड़, तमिल, मलयालम, मराठी, ओडिया आदि भाषाओं में भी विभिन्न भारतीय साहित्यिक कृतियों के अनुवाद मिलते हैं जिन्होंने जनता में राष्ट्रीय चेतना को जगाने का कार्य किया।
हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं ने स्वतंत्रता संग्राम में मिलकर भारतीय भाषाओं के रूप में अपनी भूमिका निभाई लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण राजनीति के कारण स्वतन्त्रता के बाद हिंदी विरोध के स्वर उठने लगे। अंग्रेजों की ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति का प्रभाव भाषाई क्षेत्र में प्रभाव देखने को मिला। जब हिंदी को बड़ी बहन के रूप में स्वीकारने की बजाए दक्षिण भारत के कुछ राजनीतिक दलों द्वारा इसे शत्रु रूप में देखा गया। राष्ट्रीय भावनाओं के ज्वार के युग में राजनीतिक कारणों से क्षेत्रवाद को उभारकर हिंदी विरोध का वातावरण तैयार किया गया। राष्ट्रीय एकता की वाहक बनी भारतीय भाषाओं में विद्वेष उत्पन्न करने का कार्य किया गया। वास्तव में यह पश्चिमी विचारकों द्वारा पोषित दूषित अवधारणा का फल था जो भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक एकता को अस्वीकार करते हुए भारत को कई राष्ट्रों तथा कई राष्ट्रीयताओं का समूह मानती थी।
दूसरी ओर भारतीय समन्वयवादी दृष्टि से यह भी दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य का अध्ययन, मनन और अनुवाद जो, हिंदी में किया जाना अपेक्षित था, वह नहीं हो पाया। क्षेत्रीय भाषाओं में रचित साहित्य की हिंदी में उपलब्धि, विवेचना तथा टीकाएँ बहुत कम हैं। यहाँ तक कि क्षेत्रीय भाषाओं का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान जैसे विषय पर भी बहुत कम सामग्री उपलब्ध है। भावना और चेतना की दृष्टि से सभी भारतीय भाषाएँ एक परिवार है अत: क्षेत्रीय भाषाओं में रचित साहित्य का हिंदी में भी अधिक से अधिक अनुवाद, विश्लेषण तथा विवेचन किया जाना चाहिए। राष्ट्र में परस्पर प्रेम तथा सहयोग की दृष्टि से यह आवश्यक है। अत: सुधी पाठकों से निवेदन है और अपेक्षा है कि राष्ट्रीय चेतना के इस भारतीय साहित्य पर अधिक शोध व पठनपाठन हो। जिससे भाषाई राजनीति समाप्त हो और अधिक भारतीय सहित्य की पहचान विश्व में स्थापित हो।
(लेखक चौधरी बंसीलाल विश्वविद्यालय, भिवानी-हरियाणा में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष है।)
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