बाल केन्द्रित क्रिया आधारित शिक्षा-2

गतांक में हमने Education by Learning की चर्चा की थी। अब इस विषय पर थोड़ा और गहराई से विचार करेगे। बालक के मनोविज्ञान को समझते हुए शिक्षण की व्यवस्था करना तथा उसकी अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों को दूर करना बाल केन्द्रित शिक्षण है। बालक की रुचि, प्रवृत्ति, क्षमताओं को ध्यान में रखकर सब प्रकार के विकास की योजना बाल केन्द्रित शिक्षण में है। बाल केन्द्रित शिक्षण में कुछ और भी बिन्दू हैं-

  • बालकों को क्रियाशील रखकर शिक्षण प्रदान करना, इससे किसी भी कार्य को करने में हाथ पैर और मस्तिष्क सब क्रियाशील हो जाते हैं।
  • बालकों को महापुरुषों, वैज्ञानिकों आदि का उदाहरण देकर प्रेरित करना।
  • अनुकरणीय व्यवहार, नैतिक कहानियां नाटक आदि द्वारा शिक्षण।
  • बालक को जीवन से जुडे़ हुए ज्ञान का शिक्षण।
  • योग्यता व रुचि के अनुसार विषय वस्तु का चयन।
  • रचनात्मक कार्य जैसे हस्तकला आदि के द्वारा शिक्षण।
  • बालक का व्यक्तिगत निरीक्षण कर उसकी दैनिक कठिनाइयों को दूर करना।

आचार्य कक्षा कक्ष में पढ़ाने जाता है और परम्परागत ढंग से पढ़ाता है। पुस्तक खोलो पाठ क्र॰ 7 पढ़ो, फिर श्यामपट्ट पर कुछ लिखकर समझाता है। अन्त में गृह कार्य के लिए कुछ प्रश्न हल करने को देता है। इसकी बजाय वह कक्षा में कहानी सुनाने से प्रारम्भ करे अथवा खेल खिलाना प्रारम्भ करे, यह करते हुए अपने विषय को जोड़ते हुए पाठ्यक्रम का जो हिस्सा करवाना है उसे करवाए तो सोचिए कैसा दृश्य होगा। बालक की रोचकता, एकाग्रता, आनन्द की अनुभूति व गतिशीलता पनप उठती है। बालकों की ग्राह्य शक्ति पनप उठती है।

एक कक्षा में कम्प्यूटर विषय में बालकों को Softwere व Application के नाम कण्ठस्थ नहीं हो रहें थे। एक दिन दीदी ने सोचा कि कैसे करे? वह बालकों को मैदान में ले गई। प्रत्येक बालक को एक नाम दिया गया। कोई Word कोई Excel कोई Window7 फिर खेल प्रारम्भ हुआ। एक दूसरे को इस नये नाम से पकड़ने का। 10 मिनट के इस खेल के बाद सब Computer के कक्ष में गए। पूछने पर ध्यान में आया कि सभी को Softwere व Application के नाम सरलता से कठस्थ हो गए और सभी के चेहरे पर आनन्द की अनुभूति झलक रही थी।

एक कक्षा में हिन्दी वर्ण माला की जानकारी के विषय में चर्चा हुई। बालकों से दो अक्षर व बिना मात्रा के शब्द बनाने को कहा। सब ने अच्छी संख्या में शब्द बनाए। क्रमशः 3, 4, 5 अक्षर से व मात्रा रहित शब्द बनाने के लिए बताया। सबका प्रयास अच्छा रहा। फिर उन्हें ‘माता’ शब्द पर न्यूनतम तीन वाक्य बनाने को कहा गया। बाद में सभी ने बताया। वाक्य सुनकर आश्चर्य। बालकों को कक्षा में पूर्व में कोई इस प्रकार का प्रस्ताव नहीं करवाया गया था। वाक्य इस प्रकार थे कि बालक अपनी माता जी के बारे में जो अनुभव करते है या घर में जैसा उन्हें देखते है उसे वाक्य में रचित किया। इस प्रकार के शिक्षण में जब रुचि जग जाती है तो गतिशीलता बढ़ने लगती है। भूलें ठीक होने लगती हैं, प्रतिभा व क्षमता बढ़कर कुशलता का रूप ग्रहण करने लगती है| साथ-साथ कल्पनाशीलता भी बढ़ती है। इस प्रकार की पद्धति के लिए दो प्रकार के कार्य आवश्यक है-

  1.  बालकों को जिज्ञासा का भाव पनपाना जिससे कि उनमें प्रश्नों का उतर खोजने के लिए गतिशीलता पनप उठे।
  2. आचार्य की तुलना में बच्चों में क्रियाशीलता का जागरण।

शिक्षा के बारे में रवीन्द्रनाथ ठाकुर का विचार रहा है- सिद्वान्त व व्यवहार में शिक्षा प्रणाली ऐसी हो जिसमें हृदय, हाथ और मस्तिष्क को पूरी तरह से विकसित करने का अवसर मिले। इसलिए उन्होने बाल केन्द्रित शिक्षण को अत्यधिक महत्व दिया।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *