भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 97 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा के करणीय प्रयास)

 ✍ वासुदेव प्रजापति

‘ज्ञान की बात’ का आज से पाँचवें वर्ष में प्रवेश हो रहा है। अब तक हमने 96 ज्ञान की बातों का पठन कर लिया है। चौथे वर्ष में पश्चिमी शिक्षा के दुष्परिणामों के अन्तर्गत हीनताबोध, मूल्यों का ह्रास, बुद्धिविभ्रम, व्यक्तिकेन्द्री व्यवस्था, भौतिकता का आधार, शिक्षा का बाजारीकरण, यंत्र संस्कृति का बोलबाला व कर्म संस्कृति का नाश, दायित्वबोध का संकट, अपने देश के विषय में घोर अज्ञान जैसे दुष्परिणामों को विस्तार से जाना है। इस पाँचवे वर्ष में ज्ञान की बात 97 आपके स्वाध्याय हेतु प्रस्तुत है, जिसका विषय “भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा के करणीय प्रयास” है।

पश्चिमी शिक्षा के माध्यम से जो-जो रोग भारतीयों को लगाए गए उनके भौतिक, मनोवैज्ञानिक और बौद्धिक स्वरूप का विश्लेषण हमने चौथे वर्ष में पढ़ा है। परन्तु केवल रोग की स्थिति को समझ लेने से या दु:खी होने से या शिकायत करने से या आत्मग्लानि का अनुभव करने से कभी रोग से मुक्त नहीं हुआ जा सकता। रोग से मुक्ति तो तभी मिलती है जब रोग का उपचार करके उसका समूल नाश न कर दिया जाय। जिस प्रकार आचार्य चाणक्य ने पैर में काँटा चुभ जाने पर केवल उस काँटें को निकालकर नहीं फेंका,अपितु काँटों भरी उस झाड़ी को खोदकर उखाड़ फैंका। इतना करके भी वे रुके नहीं, उस झाड़ी की जड़ों में खट्टी छाछ उडेल दी जिससे काँटों की उस जड़ का ही सर्वनाश हो गया और आगे से नये काँटों का उगना बन्द हो गया, इसे कहते हैं रोग को मूल से नष्ट करना। आचार्य चाणक्य रोग का मूल से नाश करने की शिक्षा देते हैं, अत: हमें भी आचार्य चाणक्य की भाँति पश्चिमी शिक्षा से उत्पन्न रोगों का मूल से सर्वनाश करना है।

हमारे देश में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में एक राष्ट्रीय नेता हुए जिनका नाम पंडित सुन्दरलाल था। वे इतिहास लेखक भी थे, उन्होंने तीन वर्ष के निरन्तर अध्ययन एवं अनुसंधान के फलस्वरूप अपने देश का सही इतिहास बताने वाला ‘भारत में अंग्रेजी राज’ नामक एक ग्रन्थ की रचना की थी। सन् 1929 में उसका प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ था, जिस पर अंग्रेजों ने प्रतिबन्ध लगा दिया था। अंग्रेजों ने इस ग्रन्थ को प्रतिबन्धित इसलिए किया था कि भारतीयों को उनके सही इतिहास की जानकारी न होने पाये। वे अंग्रेजों के लिखे गलत इतिहास को ही पढ़ें और अंग्रेजों के विरुद्ध किसी भी प्रकार का प्रतिरोध न करें। पंडित सुन्दरलाल ने अपने इस ग्रन्थ में अंग्रेजों के उन सभी षडयंत्रों को उजागर किया है, जिनके कारण भारतीय शिक्षा का सर्वनाश हुआ है। यहाँ हम उनके ग्रन्थ भारत में अंग्रेजी राज के कुछ अंशों को जानेंगे।

भारत की श्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था

अंग्रेजों के आने से पहले हमारे देश में शिक्षा की व्यवस्था संसार के अग्रणी देशों में गिनी जाती थीं। 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में यूरोप के किसी भी देश में शिक्षा का प्रचार इतना अधिक नहीं था जितना भारतवर्ष में था। इसी प्रकार जनसंख्या प्रतिशत की दृष्टि से भी पढ़े-लिखे लोगों की संख्या भारत में सर्वाधिक थी। उस समय भारत में जनसामान्य को शिक्षा देने के लिए चार प्रकार की संस्थाएं थीं –

  1. लाखों ब्राह्मण अध्यापक अपने-अपने घरों पर विद्यार्थियों को रखकर उन्हें पढ़ाते थे।
  2. सभी मुख्य-मुख्य नगरों में उच्च संस्कृत शिक्षा के लिए टोल या विद्यापीठ कार्यरत थे।
  3. उर्दू और फारसी की शिक्षा के लिए स्थान-स्थान पर मकतब और मदरसे थे, जिनमें लाखों हिन्दू और मुसलमान विद्यार्थी साथ-साथ शिक्षा पाते थे।
  4. इन सबके अतिरिक्त देश के हर छोटे से छोटे गांव में सब बालकों की शिक्षा के लिए कम से कम एक पाठशाला अनिवार्य रूप से होती थी।

उस समय गांव के सब बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध करना हर ग्राम पंचायत अपना आवश्यक कर्तव्य समझती थी और सदैव उसका पालन करती थी, परन्तु अंग्रेजों ने सभी ग्राम पंचायतों को ही नष्ट कर दिया था और ग्राम पंचायतों के नष्ट होने से ये पाठशालाएँ भी बन्द हो गईं।

इंग्लिस्तान की पार्लियामेंट के प्रसिद्ध सदस्य केर हार्डी ने अपनी पुस्तक इंडिया में लिखा है –

मैक्समूलर ने सरकारी लेखों के आधार पर और एक मिशनरी रिपोर्ट के आधार पर लिखा है कि उस समय बंगाल में 80,000 देशी पाठशालाएं थीं, अर्थात् राज्य की कुल जनसंख्या के हर चार सौ मनुष्यों पर एक पाठशाला थी। इतिहास लेखक लडलो अपने ब्रिटिश भारत के इतिहास में लिखता है कि हर हिन्दू गांव में जिसका पुराना संगठन अभी तक कायम है, मुझे विश्वास है कि आमतौर पर सब बच्चे पढ़ना-लिखना और हिसाब करना जानते हैं। जहाँ-जहाँ हमने ग्राम पंचायत को समाप्त कर दिया है (जैसे बंगाल में) वहाँ-वहाँ ग्राम पंचायत के साथ-साथ गाँव की पाठशाला भी बन्द हो गई है।

प्राचीन भारत के ग्रामवासियों की शिक्षा के सम्बन्ध में सन् 1823 में कम्पनी की एक रिपोर्ट बतलाती है कि –

शिक्षा की दृष्टि से संसार के किसी भी दूसरे देश में किसानों की हालत इतनी ऊँची नहीं है जितनी भारत के किसानों की है। इस बात से यह पता चलता है कि भारत में शिक्षा का प्रसार कितना अधिक था। उस समय शिक्षा देने की प्रणाली कितनी अनोखी थी! इतिहास से पता चलता है कि उन्नीसवीं सदी के शुरु में डाक्टर एण्ड्रूबेल नामक एक प्रसिद्ध शिक्षा प्रेमी अंग्रेज था, उसने इस देश की अनोखी शिक्षा प्रणाली इंग्लिस्तान जाकर वहाँ पर अपने देश के बालकों को भारत की शिक्षा देना शुरु किया। 3 जून सन् 1814 को कम्पनी के डायरेक्टरों ने बंगाल के गवर्नर जनरल के नाम एक पत्र भेजा, जिसमें लिखा है कि “शिक्षा का जो तरीका बहुत पुराने समय से भारत में वहाँ के आचार्यों के अधीन जारी है उसे डॉक्टर रेवरेण्ड जो मद्रास में पादरी रह चुका है, उसने वही तरीका इंग्लिस्तान में भी प्रचलित किया गया है, क्योंकि हमारा विश्वास है कि इससे भाषा को सिखाना बहुत सरल और सुगम हो जाता है।”

कम्पनी शासन में भारतीय शिक्षा का ह्रास

भारत में जिस-जिस प्रान्त में कम्पनी का शासन जमता गया उस प्रान्त में हजारों साल पुरानी शिक्षा प्रणाली मिटती चली गई। भारतीय शिक्षा के सर्वनाश का कुछ अनुमान बेलारी जिले के अंग्रेज कलेक्टर ए.डी. कैम्पबेल की सन् 1823 की एक रिपोर्ट से किया जा सकता है। कैम्पबेल लिखता है कि “जिस व्यवस्था के अनुसार भारत की पाठशालाओं में बच्चों को लिखना सिखाया जाता है और जिस ढ़ंग से ऊँचे दर्जे के विद्यार्थी नीचे दर्जे के विद्यार्थियों को शिक्षा देते हैं और साथ-साथ अपना ज्ञान भी पक्का करते रहते हैं। वह कक्षानायक (मोनीटर) प्रणाली निस्संदेह प्रसंशनीय है और इंग्लिस्तान में उसका जो अनुसरण किया गया है जो सर्वथा योग्य है।”

उसके बाद वह कम्पनी के शासन में भारतीय शिक्षा की अवनति और उसके कारणों को बयान करते हुए वह लिखता है कि “मुझे यह कहते हुए दुख होता है कि सारा देश धीरे-धीरे निर्धन होता जा रहा है। हाल ही में जब हिन्दोस्तान के बने हुए सूती कपड़ों की जगह इंग्लिस्तान के बने हुए कपड़ों को इस देश में प्रचलित किया गया है, तब से भारत के कारीगरों के लिए जीवन निर्वाह के साधन बहुत कम हो गए हैं।” हमने अपनी बहुत-सी पलटने अपने इलाकों से हटाकर उन देशी राजाओं के इलाकों में भेज दी हैं, जिससे अनाज की मांग पर बहुत बुरा असर पड़ा है। देश का धन पुराने समय के देशी दरबारों और देशी कर्मचारियों के हाथों से निकलकर अंग्रेजों के हाथों में चला गया है। देशी दरबारों और उनके कर्मचारी तो उस धन को भारत में ही बड़ी उदारता के साथ सामाजिक कार्यों में लगाते थे। इसके विपरीत नये यूरोपियन कर्मचारियों को हमने कानूनन आज्ञा दी है कि वे अस्थायी तौर पर इस धन को भारत में खर्च न करें। अतः ये यूरोपियन कर्मचारी भारत के धन को प्रतिदिन ढो ढोकर भारत से बाहर ले जा रहे हैं। देश के दरिद्र होने का यह भी एक कारण है। जबकि सरकारी लगान कड़ाई के साथ वसूल किया जाता है, उसमें किसी भी तरह की ढिलाई नहीं दी गई, जिससे प्रजा के कष्टों में थोड़ी-सी भी कमी हो सकती हो। मध्यम श्रेणी और निम्न श्रेणी के अधिकांश लोगों की आर्थिक स्थिति ऐसी हो गई थी कि वे अपने बच्चों की शिक्षा का खर्चा उठा सकें। इसलिए ज्योंहि उनके बच्चों के कोमल अंग थोड़ी बहुत मेहनत करने लायक होते त्योंहि उनके माता-पिता उन्हें जिन्दगी की जरूरतें पूरी करने के लिए मेहनत-मजदूरी करवाने लग जाते। इसलिए भी बच्चे पढ़ाई से वंचित रह जाते हैं।

आगे चलकर अपने से पहले और अपने समय की शिक्षा की हालत की तुलना करते हुए कैम्पबेल लिखते हैं कि “इस समय बेलारी जिले करीब दस लाख आबादी में से सात हजार बच्चे भी शिक्षा नहीं पा रहे हैं। यह पूरी तरह ज्ञात है कि निर्धनता के कारण शिक्षा की कितनी अवनति हुई है। बहुत से गांवों में जहाँ पहले पाठशालाएँ मौजूद थीं, वहाँ अब एक भी पाठशाला नहीं है। दूसरे अनेक गांवों में जहाँ पहले बड़ी-बड़ी पाठशालाएँ हुआ करती थीं वहाँ अब केवल अति धनाढ्य लोगों के थोड़े से बालक शिक्षा पाते हैं। इस बेलारी जिले में शिक्षा की अब यह दुर्दशा हो गई है। किसी भी देश में राजदरबार की सहायता के बिना शिक्षा नहीं बढ़ती, भारत के इस भाग में विज्ञान को देशी दरबारों से जो सहायता और प्रोत्साहन पहले दिया जाता था, वह अंग्रेजी राज के आने के समय से बहुत दिन हुए बन्द कर दिया गया है। इस जिले में घटते-घटते शिक्षा सम्बन्धी 533 संस्थाएँ रह गई हैं और मुझे यह कहते लज्जा आती है कि इनमें से किसी एक को भी अब अंग्रेज सरकार की ओर से किसी तरह की सहायता नहीं दी जाती।” जबकि पुराने समय में विशेषकर हिन्दुओं के शासन काल में विद्या प्रचार की सहायता के लिए बहुत बड़ी रकम और बड़ी-बड़ी जागीरें राज की ओर से बंधी हुई थीं। किन्तु हमारे शासन में यहाँ तक अवनति हुई कि अंग्रेजी राज की आमदनी से अब उल्टा अज्ञान को उन्नति दी जाती है।

साहित्यिक अवनति

एक और अंग्रेज विद्वान वाल्टर हैमिल्टन ने सन् 1828 में सरकारी रिपोर्ट के आधार पर लिखा था “भारतवासियों में साहित्य और विज्ञान की दिन प्रतिदिन अवनति होती जा रही है। विद्वानों की तादाद घटती जा रही है और जो लोग अभी तक विद्याध्ययन करते हैं उनमें भी अध्ययन के विषय बेहद कम होते जा रहे हैं। दर्शन विज्ञान को पढ़ना लोगों ने छोड़ दिया है, जिन विद्याओं का सम्बन्ध विशेष धार्मिक कर्मकांडों या फलित से है, ऐसी किसी भी विद्या का अब कोई भी अध्ययन नहीं करते हैं। साहित्य की इस अवनति का मुख्य कारण यह मालूम होता है कि इससे पहले देशी राज में राजा लोग और धनवान लोग सब विद्या प्रचार को प्रोत्साहन और सहायता दिया करते थे। वे देशी दरबार अब सदा के लिए मिट चुके हैं। इसलिए प्रोत्साहन और सहायता संस्कृत साहित्य को मिलनी बन्द हो गई है। सब बातों का सार यही है कि जो कहानी कैम्पबेल ने मद्रास की बताई है, वहीं कहानी सारे ब्रिटिश भारत की है।” इस प्रकार कम्पनी सरकार ने पारम्परिक भारतीय शिक्षा का सर्वनाश कर दिया।

मैक्समूलर के पत्र का उत्तर हमें देना है

भारतीय ज्ञान के मूल स्रोत वेदों का यूरोपीय भाषा में अनुवाद करने वाले पं. मैक्समूलर ने अपने मित्र को भेजें एक पत्र में लिखा था –

India has been conquered once, but she should be conquered again. And the second conquest should be the conquest through education.  (Oct. 1868)

अर्थात् भारत एक बार जीता गया है, परन्तु वह सर्वार्थ में दूसरी बार जीता जाना चाहिए, और यह दूसरी विजय शिक्षा के द्वारा होनी चाहिए।

इस प्रकार मैकाले प्रणीत शिक्षा के द्वारा अंग्रेज़ों ने भारत पर दूसरी बार विजय प्राप्त की थी। मैक्समूलर के इस कथन का उत्तर अब हमें देना है, और हमारा उत्तर होगा यह –

भारत माता एक बार मुक्त हुई है, परन्तु उसे सर्वार्थ में दूसरी बार मुक्त करने की आवश्यकता है। और यह दूसरी मुक्ति भारतीय शिक्षा से ही होगी।

भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हमें धैर्यपूर्वक, निष्ठापूर्वक, परिस्थिति को समझकर प्रयास करने होंगे। ये प्रयास व्यक्तिगत स्तर पर नहीं अपितु राष्ट्र के सभी स्तरों पर करने होंगे। इन प्रयासों के स्वरूप मनोवैज्ञानिक और बौद्धिक, आर्थिक, राजनीतिक, भौतिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार के होंगे। हमारे पुरुषार्थ, हमारी आवश्यकता और राष्ट्र की नियती में श्रद्धा रखकर हमें प्रयास करने होंगे। हमारे ये प्रयास निर्णायक भी होने चाहिए, इसलिए पूरे मनोयोग से हमें ये प्रयास करने होंगे। ऐसे सभी प्रयासों का वर्णन हमें अगले अध्यायों में पढ़ने के लिए मिलेंगे, अतः उनकी प्रतीक्षा करें …..

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 96 (आशा की किरण कहाँ हैं?)

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