पुस्तक परिचय : भारतीय शिक्षा ग्रंथमाला, तीसरा ग्रन्थ – भारतीय शिक्षा के व्यवहारिक आयाम

पुस्तक का नाम : भारतीय शिक्षा ग्रंथमाला, तीसरा ग्रन्थभारतीय शिक्षा के व्यवहारिक आयाम

लेखन एवं संपादन : इंदुमति काटदरे, अहमदाबाद

सह संपादक : वंदना फड़के नासिक, सुधा करंजगावकर अहमदाबाद, वासुदेव प्रजापति जोधपुर

प्रकाशक : पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, अहमदाबाद वेबसाइट – www.punarutthan.org

संस्करण : व्यास पूर्णिमा, युगाब्द, 9 जुलाई 2017

 

क्या आप यह सब करना चाहते है?

  • क्या आप भी मानते हैं कि तत्त्व के अनुरूप व्यवहार होना चाहिए और व्यवहार सुगम हो ऐसी व्यवस्थाएँ बननी चाहिए।
  • व्यवस्थाओं को बनाते समय व्यक्ति को स्वास्थ्य एवं पर्यावरण की हानि न हो, इसका विचार करना चाहिए।
  • विद्यालय की सभी व्यवस्थाओं का केन्द्र विद्यार्थी होना चाहिए।
  • सभी शैक्षिक एवं भौतिक व्यवस्थाओं का आधार आध्यात्मिक होना चाहिए।
  • आर्थिक व्यवस्थाओं में दान, भिक्षा (गोचरी) व दक्षिणा जैसी व्यवस्थाओं का व्यक्तित्व के समग्र विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

यदि आप भी विद्यालय में यह सब करना चाहते हैं तो भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला का तीसरा ग्रन्थ अवश्य पढ़ें। आओ! हम इस तीसरे ग्रन्थ से भी परिचित होते हैं।

तीसरा ग्रन्थ – भारतीय शिक्षा के व्यवहारिक आयाम

यह तीसरा ग्रन्थ उन शिक्षा प्रेमियों के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, जो भारतीय पद्धति का नया शिक्षा केन्द्र खड़ा करना चाहते है। आज हमारे देश में तत्त्व और व्यवहार का सम्बन्ध टूट गया है। हमारा व्यवहार एवं व्यवस्थाएँ दोनों ही पाश्चात्य शैली के बन गये हैं, शिक्षा केन्द्र भी इससे अछूते नहीं हैं, अतः भारतीय शैली का शिक्षा केन्द्र कैसा होना चाहिए, इसका प्रतिपादन इस ग्रन्थ का मुख्य विषय है। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु को पाँच पर्वों में समेटा है। इन पाँचों पर्वों का विवरण अधोलिखित है :

विषय प्रवेश में तत्त्व एवं व्यवहार का सम्बन्ध स्थापित करते हुए युगानुकूल एवं देशानुकूल अवधारणाओं को स्पष्ट करते हुए युगानुकूलता के आयाम बतलाये गए हैं।

पर्व दो में विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय एवं परिवार की भूमिकाएँ बतलाई गई हैं। शिक्षा का केन्द्र बिन्दु विद्यार्थी है, उस विद्यार्थी का समग्र विकास करने वाले शिक्षक का शिक्षकत्व किन बातों में है यह बतलाते हुए विद्यालय का सामाजिक दायित्व तथा इसमें परिवार की शैक्षिक भूमिका क्या होनी चाहिए, यह बतलाया गया है।

पर्व तीन में विद्यालय की सभी शैक्षिक व्यवस्थाओं जैसे- समय, समय सारिणी, पाठ्यक्रम, मूल्यांकन आदि में भारतीय पक्ष का प्रतिपादन हुआ है। छात्र के शैक्षिक कार्य तथा विद्यालय में अध्ययन-अध्यापन का विचार करते हुए विद्यालय का समाज में एक विशिष्ठ स्थान होना चाहिए, यह सुझाया गया है।

पर्व चार में विद्यालय की भौतिक व्यवस्थाएँ, जैसे- भवन, खेल के मैदान, उपस्कर (फर्नीचर), जल-विद्युत की व्यवस्थाएँ आदि पर विचार करते हुए आर्थिक व्यवस्थाओं जैसे शुल्क, दान, भिक्षा (गोचरी), दक्षिणा जैसी पद्धतियों के लाभ बताते हुए सम्पूर्ण व्यवस्था तंत्र का विचार किया गया है।

अन्तिम पाँचवे पर्व में आलेख व दो प्रश्नावलियों का सार दिया गया है।

फलश्रुति एक शिक्षा केन्द्र के लिए आवश्यक सभी व्यवहारिक पक्षों पर भारतीय दृष्टि से विचार करने वाले इस ग्रन्थ को पढ़ने वालों में आत्म विश्वास व आत्म गौरव की वृद्धि होगी।

(लेखक शिक्षाविद् है, इस ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

और पढ़ें : पुस्तक परिचय : भारतीय शिक्षा ग्रंथमाला, द्वितीय ग्रन्थ – शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान

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