– राजेन्द्र बघेल
वीर प्रसूता भारत माता की कोख से ऐसे अनगिनत लाल जन्में, जिन्होंने देश हित में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। भाऊराव देवरस उनमें से एक ऐसा नाम है। जिसने अपने जीवन के 65 वर्षों में जब से उनकी प्रज्ञा जागृत हुई एक-एक क्षण राष्ट्र के लिए जिया। वैसे तो देवरस परिवार मूलतः आंध्र प्रदेश का था, पर पेशवा बाजीराव के समय जब हिन्दवी स्वराज्य का सूर्य अपने पूर्ण तेज पर था तो यह परिवार महाराष्ट्र के भंडारा जिले के आम गाँव आकर बसा। कालांतर में यह परिवार आम गाँव से स्थानांतरित होकर मध्यप्रदेश के बालघाट जिले के करिंजा नामक स्थान पर आ बसा।
भाऊराव जी के पिता श्री दत्तात्रेय देवरस राजस्व विभाग में अधिकारी थे। माँ अत्यंत सरल व विनम्र स्वभाव की गृहणी थीं। पिताजी की नौकरी के क्रम में सबका नागपूर आना हुआ। भाऊराव देवरस 19 नवम्बर 1917 को जन्में नौ भाई-बहनों के परिवार में भाईयों में सबसे छोटे थे। उनका पूरा नाम मुरलीधर दत्तात्रेय देवरस था। प्यार से सब उन्हें भाऊ कहकर पुकारते थे। तीन भाई, क्रमश: नामी वकील, पुलिस अधिकारी एंव डाक्टर बने पर चौथे भाई बाला साहव देवरस व पांचवे भाऊराव देवरस देश को सामर्थ्यवान बनाने के लक्ष्य की पूर्ति हेतु राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के जीवनव्रती प्रचारक बने। सम्भवतः नियति को यही स्वीकार्य था। बड़े भाई बालासाहब जी संघ संस्थापक डाक्टर जी के सम्पर्क में पहले आए फिर भाऊराव जी का भी संघ सम्पर्क हुआ और डाक्टर जी से नैकट्य मिला। नागपुर में ही भाऊराव जी ने बी.ए. तक की शिक्षा प्राप्त की थी। वर्ष 1937 (20 वर्ष की अवधि) में डाक्टर जी की संघ विस्तार की योजना के अंतर्गत भाऊराव जी नागपुर से सुदुर उत्तर प्रदेश के लखनऊ आ गए।
प्रखर विद्यार्थी एंव शिक्षा में उनका स्थान – भाऊराव जी की घर में आर्थिक स्थिति बहुत सबल न थी पर उनके सम्बन्धी की भाऊराव को आगे बढ़ाने की प्रबल इच्छा के कारण लखनऊ विश्वविद्यालय में अध्ययन का अवसर मिल गया। उन दिनों लखनऊ विश्वविद्यालय में एक ही समय में दो डिग्री पाने की व्यवस्था के अन्तर्गत भाऊराव जी ने बी.कॉम एंव एल. एल. बी. की एक साथ शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा में उनकी कुशाग्रता व प्रखरता का परिणाम यह रहा कि उन्होंने तन्मयता से अध्ययन करते हुए विश्वविद्यालय में उन दोनों विषयों में सर्वाधिक अंक पाकर स्वर्ण पदक प्राप्त किया। उसी अवधि में उन्होंने विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के अध्यक्ष पद पर भी विजय प्राप्त की। सोचिए जो व्यक्ति अपने घर से इतनी दूर संघ कार्य विस्तार के लिए आया हो वह अध्ययन के क्षेत्र में भी अग्रगण्य रहा व छात्र शक्ति का नेतृत्व भी किया।
उनकी इस प्रखरता के आधार पर विश्वविद्यालय में उन्हें अध्यापन कार्य का सुअवसर मिल सकता था पर वह तो उस देश के सामान्य जनों के हितों के लिए अपना जीवन समर्पित करने को तत्पर थे। उन्हें सीमित क्षेत्र में रहकर जीविकोपार्जन की चिंता से क्या मतलब? उत्तरप्रदेश में संघ कार्य को जन्म देकर विस्तार देने वाले भाऊराव जी ने कार्यकर्ताओं की श्रृंखला तो खड़ी की ही, साथ ही अन्यान्य क्षेत्रों में कार्य विस्तार के साथ शिक्षा क्षेत्र में एक अनुपम प्रयोग कर गए।
विद्या भारती के संगठक के रूप में अनेक उद्बोधन – भाऊराव जी का जन्म स्वातंत्र्य पूर्व हुआ था, स्वाभाविक है उनकी शिक्षा भी उसी काल में पूर्ण हुई। अपने जीवन काल में परतंत्रता के उस कठिन व कड़वे वातावरण में उन्हें अनेक पीड़ादायक अनुभव हुए थे। गुरु परंपराओं वाले उस देश में शिक्षा का वह उत्कर्षकाल भी उनके संज्ञान में था और परकीय शासन में शिक्षा की दुरवस्था व उसके परिणाम से भी पूर्णत: परिचित थे। सभी समस्याओं का एक मात्र कारण वह गुलामी, दारिद्रय, आपसी झगड़े, स्वार्थपरता की पराकाष्ठा व अहिंसा को मानते थे। परकीय शासन में उनका निराकरण सम्भव न था। इसीलिए स्वतंत्रता के पांच वर्ष पश्चात 1952 में शिशुमंदिर योजना आंरम्भ करने के पीछे जो उनका सपना था उसका क्रियान्वयन उत्तर प्रदेश के गोरखपुर केंद्र से हो सका। वह एक नन्हा पौधा आज विशाल वटवृक्ष बनकर शिक्षा के क्षेत्र में एक प्रतिमान बनकर उभरा है। अपने जीवन काल में ही कार्यकर्ताओं के मध्य उनके कर्तव्यों और संदेशों से जो सन्देश मिलते थे, उनका अनुभव हम आज भी करते हैं।
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उनका मानना था कि स्वंतत्रता के आन्दोलन में भी दो प्रकार का प्रवाह था। एक यह कि अपना देश प्राचीन एवं श्रेष्ठतम संस्कृति से परिपूर्ण रहा है। परकीय सत्ता हमारे “स्व” को समाप्त करना चाहती है। 19वीं सदी के अंत व बीसवीं सदी के आरम्भ में अनेक श्रेष्ठ महापुरुषों महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकान्द, ऋषि दयानन्द, लोकमान्य तिलक व महात्मा गाँधी का यही विचार था।
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क्रांतिकारी भी फांसी के तखते पर चढ़ते थे तो हाथ में गीता लेकर। वन्देमातरम का उद्घोष करते फांसी के तख्ते पर लटकते थे। उसी से उनके जीवन की प्रेरणा प्रकट होती थी।
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उसके साथ देश में एक ऐसा वर्ग भी जुड़ा था जो आंग्ल विभूषित था, अंग्रेजों के प्रभाव में था। अंग्रेजों का सब कुछ उत्तम है तथा अनुकरणीय भी। पर हाँ! उनके मन में यह अपमान की भावना भी थी कि 6000 मील दूर से आए अंग्रेजों के हम गुलाम हैं। उन्हें हटना चाहिए पर उनकी श्रेष्ठता भी हमें ग्रहण करनी चाहिए। स्वाधीनता आन्दोलन में ऐसे अनेकानेक लोगों का भी हाथ था। पर भारत का कोई ‘स्व’ है; उसके आधार पर देश का पुन:निर्माण हो, शिक्षा की व्यवस्था सुदृढ बने तथा ऐसा भारत के हित में हो, ऐसा वें नहीं चाहते थे।
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द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात आए परिवर्तन के कारण व देशहित में प्रखर स्वतंत्रता आन्दोलन के आधार पर भारत स्वाधीन हुआ। लोगों ने सोचा अब दैन्य स्थिति से छुटकारा मिलेगा; दुरावस्था से मुक्ति मिलेगी। अब राम राज्य आएगा। पर एक लम्बी अवधि बीत जाने के बाद लोगों का यह भ्रम दूर हुआ। ऐसे वक्तव्य के साथ भाऊराव जी कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए ऐसा न हो पाने का कारण भी स्पष्ट करना भी नहीं भूलते थे। वह कहते थे कि परकीय सत्ता से मुक्त होना ही पर्याप्त नही होता। जब तक स्व को जगाने की अभीष्ट स्थिति नहीं बनती, देश के सामान्य जनों के लिए शिक्षा की सुदृढ व्यवस्था नहीं बनती। उसके लिए मार्ग में जो भी अवरोध आएं उन्हें दूर करना हमारा कर्तव्य होता है। मार्ग लम्बा है पर हमें सदैव आगे बढ़ना है।
हमारी शिक्षा का आधार सामान्य जन हैं – भाऊराव जी के अनेक संदेश एवं उद्बोधनों में जो विचार एंव दृष्टि उभर कर आई उनसे अनेक बातें स्पष्ट हुई।
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शिक्षा में दोष है तथा शिक्षा में बदल केवल सरकार करेगी यह उचित नहीं।
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समाज के सहयोग से शिक्षा के क्षेत्र में यथेष्ट परिवर्तन लाने वालों की निर्मिती हमें करनी होगी।
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शिक्षा में भारतीयता लाने की ठीक सोच चाहिए।
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शिक्षा का भारतीय प्रतिमान (पूर्व में हमने यह करके दिखाया हैं) खड़ा करना होगा। इस योजना की पीछे की प्रेरणा को हम सबको ठीक समझना होगा।
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आचार्यों को संबोधन करते समय वह स्पष्ट करते थे, “हम गरीब बेचारे शिक्षक नहीं हैं, हमने जान बुझकर इस क्षेत्र को अपनाया हैं।”
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“सर्वे गुणा: कांचनमाभ्रयन्ति” यही न मानकर अपना सद्गुण एवं अपनी श्र्द्धाभक्ति जैसे गुणों के माध्यम से अपने समाज में लोगों से संपर्क स्थापित करेंगे। उन जीवन मूल्यों के आधार पर हम पथ पर बढ़ेंगे।
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किसी राष्ट्र का भविष्य उस राष्ट्र के सामान्य जन ही उसके आधार होते हैं, अतएव शिक्षा का निर्माण देश के सामान्य जनों को ध्यान में रखकर किया जाए।
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राष्ट्र की शक्ति देश के सामान्य जन में होती हैं, उनके हृदय में मातृ भक्ति व स्व के भाव को जगाया जाए।
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दासता के काल में अंग्रेजी भाषा को अपनाया। उसी माध्यम से शिक्षा ग्रहण की, संस्कृत भी अंग्रेजी में पढ़ते रहे। आज भी अंग्रेजी संस्कृति की छाप लोगों पर हैं। शिक्षण मातृभाषा के माध्यम से ही हो। हाँ भाषा के रूप में अंग्रेजी पढ़ना ठीक है, पर माध्यम नहीं बनाना।
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सरकार सहयोग करे या न करे, विशाल समाज के सहयोग से हम शिक्षा पद्धति विकसित करें। सरकार के अनुसार एवं आशीर्वाद पर ही आधारित न रहें।
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सेवा बस्ती के लोग, गरीब से गरीब अज्ञानी (Reach to un–reach) तक की ओर हमारी शिक्षा का ध्यान जाए। बड़े महानगरों में कुछ लोग जो शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी मानते है; ऐसे विशिष्ट जन हमारी शिक्षा के आधार नहीं हैं हमारे आधार सामान्य जन हैं।
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जाति भेद, प्रांत भेद, भाषा भेद जैसी विघटनकारी व्यवस्थाओं से हटकर शिक्षा के माध्यम से आगामी पीढ़ी के ह्रदय में राष्ट्र भक्ति का भाव जगाने का व्रत हमने लिया हैं।
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नैराश्य की स्थिति से हटना दूसरों को इस परिस्थिति का जिम्मेदार न बनाकर हमारे बंधु शिक्षा के उस क्षेत्र में कार्य कर रहें हैं – इसी से देश का कल्याण होगा।
बीज बनकर वह स्वयं को बो गए : वर्ष 1992 मई मास में भाऊराव जी का जीवन पूरा हुआ। संघ के दायित्वों को पूर्ण करते हुए शिक्षा के क्षेत्र में उनके संदेश से कार्यकर्ताओं को आज भी अनुपम प्रेरणा मिलती हैं। नागपुर से डाक्टर हेडगेवार ने जिन नवयुवकों कों अपने स्नेह से सिंचित कर देश भर में राष्ट्रकार्य के लिए भेजा था उनमें से एक भाऊराव ने भारत माता की सेवा में अपने को समर्पित कर दिया।
(लेखक शिक्षाविद है और विद्या भारती विद्वत परिषद् के अखिल भारतीय संयोजक है।)
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माँ भारती के महान सपूत के विषय मे अत्यंत उपयोगी और प्रेरणादायक जानकारी के लिए हार्दिक धन्यवाद आपका