भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 75 (स्वायत्त शिक्षा व्यवस्था का नाश)

 ✍ वासुदेव प्रजापति

अंग्रेजों के भारत में आने तक हमारी शिक्षा व्यवस्था स्वायत्त थी। शिक्षा शिक्षक के अधीन थी और समाज के पोषण से चलती थीं। शासन को शिक्षा की कोई चिंता नहीं थी। शिक्षा शिक्षकों के हाथ में पूर्णतया सुरक्षित थी। ब्रिटिश अधिकारी विलियम एडम के अनुसार उस समय भारत में पाँच लाख प्राथमिक विद्यालय थे। उस समय शासन की ओर से कोई शिक्षा विभाग नहीं था। क्योंकि शिक्षा शासन का विषय नहीं था। उच्च शिक्षा के केन्द्र भी पूर्णतया शिक्षक के हाथ में ही थे। प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा के सभी विद्यालय बहुत बड़ी संख्या में तथा व्यापक स्तर पर चलते थे। शासन को उनकी व्यवस्था करने की कोई चिंता नहीं करनी पड़ती थी।

उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेजों ने भारत में शिक्षा का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। उनका उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से भारतीय लोगों का मानस बदलना था। वे यह जानते थे कि शिक्षा के द्वारा यह कार्य सरलता से किया जा सकता है। जैसी शिक्षा वैसा मनुष्य और जैसा मनुष्य वैसा समाज होता है। ब्रिटिश शासन ने भारत की इस स्वायत्त शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। स्वतंत्र चलने वाले विद्यालयों को शासन ने मान्य नहीं किया, उन्हें आर्थिक सुरक्षा नहीं दी, परिणाम स्वरूप उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी नष्ट हो गई। इस प्रकार शिक्षा ब्रिटिश शासन के नियंत्रण में आ गई।

ब्रिटिश शासन ने शिक्षा को न केवल अपना शासन सुदृढ़ करने का साधन बनाया अपितु यूरोपीय ज्ञान को भी प्रतिष्ठित किया। उनकी मान्यता थी कि भारतीय समाज को सभ्य बनाने के लिए यूरोपीय ज्ञान ही श्रेष्ठ है। उन्होंने भारतीय ज्ञान को षड्यंत्र पूर्वक विकृत किया, उसकी प्राचीनता को नकारा और भारत के महापुरुषों को मिथक और ग्रंथों को माइथोलॉजी कहकर उनके प्रति अनास्था निर्माण की। भारतीय ज्ञान के प्रति अनास्था निर्माण कर उन्होंने अपनी व्यवस्था से तथा अपने पैसों से चलने वाले अंग्रेजी विद्यालयों में यूरोपीय ज्ञान देना प्रारम्भ किया और उसे श्रेष्ठ सिद्ध किया।

स्वतंत्र भारत में परतंत्र शिक्षा

सन् 1947 में जब भारत स्वाधीन हुआ तब तक भारत की पाँच पीढ़ियाँ अंग्रेजी व्यवस्था में पढ़ चुकी थीं। उनके विचार यूरोपीय हो चुके थे। ऐसे लोगों की संख्या कम होने पर भी वे शासन के प्रिय थे और समाज में सम्मान का स्थान रखते थे। भारत स्वाधीन तो हुआ परन्तु अब भी देश अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग ही चला रहे थे, जिनकी दृष्टि यूरोपीय थी। इस तरह स्वाधीन भारत परतंत्र ही बना रहा, भारत के नागरिक अब भी यूरोपीय तंत्र ही चलाने लगे। अन्य सभी व्यवस्थाओं के समान ही शिक्षा भी स्वाधीन भारत में पराए तंत्र की ही चलती रही। और अब तक भी वैसी ही चल रही है। अब जाकर नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा को भारतीय बनाने के प्रयास प्रारम्भ हुए हैं। शिक्षा के वर्तमान स्वरूप का प्रमुख लक्षण यह है कि वह पूर्णतया शासन के अधीन है। जनप्रतिनिधियों ने संविधान बनाया। उसके निर्देशों के अनुसार कानून बने, कानून के अनुसार प्रशासन की व्यवस्था बनी और प्रशासनिक अधिकारियों ने शिक्षा की बागडोर अपने हाथ में ले रखी है।

राजनीतिक दलों की दलगत राजनीति से प्रेरित शासन, संविधान के अनुसार चलने वाला प्रशासन और विश्वविद्यालयों में शिक्षित प्राध्यापक मिलकर शिक्षा का तंत्र चला रहे हैं। ये तीनों व्यवस्थाएँ यूरोपीय जीवनदृष्टि के अनुसार ही हैं। अतः यह कहना उचित ही है कि अब भी शिक्षा वैसी ही चल रही है, जैसी स्वाधीनता से पूर्व चल रही थी। ऐसी पराए तंत्र में चलने वाली शिक्षा शिक्षित लोगों को परतंत्र मानसिकता वाला ही बनाती है। ऐसी शिक्षा में जो जितना अधिक शिक्षित, वह उतना ही अधिक पराधीन है, ऐसा कहना कदापि अनुचित नहीं है। भारत के ग्रामीण अंचलों में पराधीनता कम दिखाई देने का कारण शिक्षा का कम होना ही है। स्वाधीन भारत की परतंत्र शिक्षा में जब शिक्षा शासन और प्रशासन के अधीन होकर चल रही है तो उसमें अनेक प्रकार के अनिष्टों का दिखाई देना भी स्वाभाविक है। आज अधिकांश लोगों को ये अनिष्ट अनिष्ट ही नहीं लगते, और लगते भी हैं तो अनिवार्य अनिष्ट लगते हैं, ऐसी इनकी मजबूत पकड़ बन गई है।

शासन की मान्यता अनिवार्य

शासन की मान्यता का अर्थ है, शासन द्वारा बने हुए नियमों का पालन करना। ये नियम पाठ्यक्रमों, पाठ्यपुस्तकों, परीक्षाओं, पाठन पद्धतियों व शिक्षक प्रशिक्षणों आदि सभी शैक्षिक पक्षों को सम्मिलित करते हैं। इस प्रकार राजकीय पक्षों की दलगत राजनीति और प्रशासन के तांत्रिक नियम विद्या केन्द्रों को जकड़े हुए हैं। जिन्हें शासन की मान्यता नहीं है, उन्हें शासन का प्रमाणपत्र नहीं मिलता। जिनके पास प्रमाणपत्र नहीं है, उन्हें कोई भी सरकारी नौकरी नहीं मिलती। ऐसी संस्थाओं को जहाँ वैधानिक प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती वहीं सामाजिक प्रतिष्ठा भी नहीं मिलती। इस व्यवस्था में शुद्ध ज्ञान किसी को ज्ञानवान नहीं बनाता अपितु सत्ता समर्थित ज्ञान ही व्यक्ति को ज्ञानवान बनाता है।

शिक्षा सत्ता की दासी है

सत्ता का स्वभाव होता है कि वह अपने अधीन जो भी होता है, उसे अपना नौकर मानती है। शिक्षा विषयक अन्तिम निर्णय शासन का होता है। ज्ञान का आदर नहीं उपयोग किया जाता है। ज्ञान का उपयोग भी ऐसे कार्यों में किया जाता है, जिससे ज्ञान का गौरव समाप्त होता है। सत्ता के प्रभाव से ज्ञान की सर्वोपरिता नष्ट हुई है। ज्ञान अब राज्य का मार्गदर्शन नहीं कर सकता, जब मार्गदर्शन ही नहीं कर सकता तो उस पर नियंत्रण करने की बात ही नहीं आती। आज की स्थिति ऐसी बना दी गई है कि बिना शासन की मान्यता के देश में एक भी विद्यालय नहीं चल सकता। इन सभी बातों के परिप्रेक्ष्य में हम यह कह सकते हैं कि आज हमारे देश भारत में शिक्षा को सत्ता की दासी बना दी गई है।

शिक्षक गुरु नहीं कर्मचारी है

शिक्षक आज की व्यवस्था में गुरु नहीं है, कर्मचारी है। उसे दक्षिणा नहीं वेतन मिलता है। शिक्षकों पर भी वही नियम लागू होते हैं जो भौतिक वस्तुओं के उत्पादन का काम करने वाले कर्मचारियों पर लागू होते हैं। अथवा प्रशासनिक सेवा या चिकित्सा सेवा जैसा कोई काम करने वालों पर लागू होते हैं। राजनैतिक दलों के लोग अपनी राजनीति चलाने के लिए शिक्षकों का व शैक्षिक संस्थानों की व्यवस्थाओं का उपयोग करते हैं। वे अपनी विचारधारा के प्रचार-प्रसार हेतु भी शिक्षा संस्थानों एवं शिक्षकों का उपयोग करते हैं। देश के प्रत्येक स्तर के चुनाव में इनका उपयोग होता है, यह सर्वविदित है।

व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की भरमार

वे पाठ्यक्रम जिनमें अर्थ कमाने के अवसर अधिक मिलते हैं, उन्हें व्यायसायिक पाठ्यक्रम कहा जाता है। ऐसे सभी पाठ्यक्रमों में अध्ययन हेतु प्रवेश सीधे शासन के हाथ में होते हैं। अध्यापकों की नियुक्तियाँ भी शासन ही करता है। चिकित्सा के, अभियांत्रिकी के, अध्यापन के, प्रशासनिक सेवाओं के पाठ्यक्रम भी व्यावसायिक माने जाते हैं। इनके प्रवेश, अध्ययन, परीक्षा, प्रमाणपत्र आदि सम्पूर्ण ढाँचा शासन के द्वारा संचालित होता है। इनकी अर्थव्यवस्था भी शासन के नियमन में ही चलती है। इसी प्रकार प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक और परीक्षा का निर्धारण करने वाली व्यवस्था पूर्णतया शासकीय होती है। विश्वविद्यालयों में यह कार्य विभिन्न विषयों के अध्ययन मंडल करते हैं। वे कहलाने को तो स्वायत्त होते हैं, परन्तु स्वतन्त्र नहीं होते। शासन विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकते।

ज्ञान बेचा जाने लगा है

राजनीतिक दलों, शासकीय व्यवस्थाओं तथा प्रशासकीय तंत्र के साथ समझौता करके उद्योगपति भी विद्यालय, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय स्तर तक के शिक्षा संस्थान चलाते हैं। इन सस्थानों के माध्यम से अपने काले धन को सफेद कर अपनी कमाई तो बढ़ाते ही हैं साथ ही साथ समाजसेवी और शिक्षा प्रेमी बनकर समाज में मान-सम्मान भी प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार उन्होंने शिक्षा को भी व्यवसाय में बदल डाला है। यह पाश्चात्य दृष्टि है, भारतीय दृष्टि में तो ज्ञान अर्थ से श्रेष्ठ माना गया है। भारत में ज्ञान बेचने-खरीदने की वस्तु नहीं है। ज्ञान अमूल्य तत्त्व है, उसे दान किया जाता है, बेचा नहीं जाता। इसलिए विद्यादान श्रेष्ठ दान माना गया है। परन्तु आज इन श्रेष्ठ सिद्धांतों को हम भूल गए हैं।

भारतीय ज्ञान को पुनर्प्रतिष्ठित करें

अंग्रेजों ने इस प्रकार शिक्षा के द्वारा भारतीय मानस को बदलकर यहाँ के लोगों को काले अंग्रेज बनाया। ये पढ़े-लिखे काले अंग्रेज आज भी अंग्रेजों की भाषा-भूषा, रहन-सहन, खान-पान को श्रेष्ठ मानते हैं और उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं है। हमें इसी मानसिकता को बदलना है और यह बदलाव होगा भारतीय शिक्षा को पुनः प्रतिष्ठित करने से, भारतीय ज्ञान को कक्षा-कक्ष का विषय बनाने से और भारतीयता के स्वाभिमान से। और यह सब करने से होगा, अब समय आ गया है कि हम इस दिशा में अपना कदम बढ़ायें।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 74 (भारतीय शिक्षा और अंग्रेजी षडयंत्र – 2)

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