– वासुदेव प्रजापति
समाजशास्त्र एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ रहने की व्यवस्था का शास्त्र है। साथ-साथ रहने की व्यवस्था किन सिद्धान्तों पर हुई है, यह समझना आवश्यक है। क्योंकि भारत में और पश्चिमी देशों में ये सिद्धांत भिन्न-भिन्न हैं। पहले हम पाश्चात्य सिद्धांत को समझते हैं।
पश्चिम में करार का सिद्धांत है
पहले हम करार व्यवस्था का मूल भाव समझेंगे। जब दो व्यक्ति या दो समूह अपने-अपने हित के लिए एक-दूसरे पर आधारित होते हैं तब उन्हें लेन-देन करना ही पड़ता है। कहीं दूसरा व्यक्ति या समूह मुझसे अधिक लाभान्वित न हो जाय, कहीं मुझे धोखा न दे जाय, कहीं मेरा शोषण न हो इत्यादि बातों से अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करना आवश्यक लगता है। तब इन सब बातों का सोच-विचार कर जो व्यवस्था की जाती है, उसे करार कहते हैं। व्यवस्था लाभदायक न होने पर करार भंग किया जाता है। करार भंग करने की कीमत चुकानी पड़ती है। फिर नये व्यक्ति या समूह से नया करार किया जाता है। जब सम्पूर्ण समाज व्यवस्था इस सिद्धांत पर बनी होती है, तब उसे सामाजिक करार का सिद्धांत कहते हैं।
इस विचारधारा में मनुष्य स्वयं को केन्द्र में रखकर ही व्यवहार करता है, वह अपने सुख को ही प्रमुखता देता है और उसे सुरक्षित रखने का प्रयास करता है। वहां इस बात को स्वाभाविक माना जाता है। अतः सबको अपने-अपने हित को सुरक्षित करने की चिंता स्वयं ही करनी होती है। पश्चिमी देशों में यह स्वाभाविक सिद्धांत माना जाता है, किन्तु भारत में यह सिद्धांत मूलरूप से ही स्वीकार नहीं है। भारत का सिद्धान्त बिल्कुल भिन्न है।
भारत में परिवार का सिद्धांत है
भारत में समाज व्यवस्था का आधार धर्म है। इसलिए इसे मानव धर्मशास्त्र भी कहा गया है। भारतीय ज्ञानक्षेत्र में समाज-व्यवस्था को स्मृति माना गया है। हमारे यहाँ समाज व्यवस्था परिवार के सिद्धांत पर बनी है। परिवार का मुख्य तत्त्व है, आत्मीयता। आत्मीयता में मुख्य तत्त्व है, प्रेम। प्रेम का व्यावहारिक पक्ष है, दूसरे का विचार पहले करना। दूसरे से मुझे क्या व कितना मिलेगा? यह विचार न कर, मैं दूसरे को क्या व कितना दे सकता हूँ, इसका विचार पहले करना, यह परिवार भावना का मूल तत्त्व है। भारत में सम्पूर्ण समाज व्यवस्था इसी परिवार भाव पर टिकी हुई है।
इस विश्वास के धरातल पर मानव धर्मशास्त्र प्रत्येक व्यक्ति या समूह के कर्तव्य की बात करता है, अधिकार की नहीं। सभी अपने-अपने कर्तव्य निभायेंगे और इस बात पर विश्वास करेंगे। यही भारतीय समाज व्यवस्था का मूल सूत्र है।
सुसंस्कृत मनुष्यों का समूह समाज है
मनुष्य केवल प्राकृतिक प्राणी नहीं है। उसे स्वयं को उन्नत बनाना है। वह प्रेम के स्तर पर पहुँचने के लिए साधना करता है। तब जाकर वह संस्कारित होता है। समाज कभी भी प्राकृत मनुष्यों से नहीं बनता, अपितु सुसंस्कृत मनुष्यों से बनता है। यही बात ‘शब्दकल्पद्रुम’ में इन शब्दों में कहीं गई है –
पशूनाम् पशुसमानानाम् मूर्खाणाम् समूह: समज:।
पशुभिन्नानाम् अनेकेषाम् प्रामाणिक जनानाम्
वासस्थानम् तथा सभा समाज:।।
अर्थात् जो पशु होते हैं या पशुतुल्य होते हैं, उनके समूह को समज कहा जाता है। परन्तु पशुओं से भिन्न सुसंस्कृत मनुष्यों के समूह को समाज कहा जाता है। इस परिभाषा के अनुसार सुसंस्कृत होना, समाज का सदस्य बनने की प्रथम योग्यता है।
अतः समाज व्यवस्था के सभी सम्बन्ध अधिकार नहीं कर्तव्य, लेना नहीं देना, स्वार्थ नहीं परार्थ के सिद्धांत पर बने हैं। इसलिए मालिक और नौकर, राजा और प्रजा, शिक्षक और छात्र, व्यापारी और ग्राहक भी पिता और पुत्र जैसा व्यवहार करे, यह अपेक्षित है। अर्थात् सभी सम्बन्धों का आधार परिवार भाव ही है।
अब हम शिक्षा द्वारा सामाजिक गुणों का विकास करने वाली एक कथा को जानेंगे –
परोपकार की ईंट
प्राचीन समय की बात है। एक ऋषि गुरुकुल चलाते थे। वे बालकों को शास्त्र ज्ञान के साथ-साथ उनमें सामाजिक गुणों का विकास करने के लिए अनेक युक्तियाँ प्रयोग में लाते थे। उनके गुरुकुल में राजा-महाराजा के पुत्रों से लेकर साधारण परिवार के बालक भी पढ़ते थे।
आज वर्षों से शिक्षा प्राप्त कर रहे शिष्यों की शिक्षा पूर्ण हो रही थी। सभी शिष्य बड़े उत्साह से अपने-अपने घर लौटने की तैयारी कर रहे थे। उसी समय गुरुजी ने सभी शिष्यों को मैदान में एकत्र होने की सूचना दी। सभी शिष्य शीघ्र ही मैदान में आ गए।
गुरुजी ने अपने शिष्यों से कहा – “प्रिय शिष्यों आज इस गुरुकुल में आपका अंतिम दिन है। मैं चाहता हूँ कि यहाँ से प्रस्थान करने से पहले आप एक दौड़ में भाग लें।” यह बाधा दौड़ होगी, इसमें कहीं कूदना होगा तो कहीं पानी में दौड़ना होगा और इसके आखिरी हिस्से में सबको एक अंधेरी सुरंग को भी पार करना पड़ेगा। इतना बताकर गुरुजी ने पूछा, “क्या आप तैयार हैं?” “हाँ गुरुजी! हम तैयार हैं।”
दौड़ शुरू हुई। सभी तेज भागने लगे। वे सभी बाधाओं को पार कर अंत में उस सुरंग के पास पहुंचे। सुरंग में अंधेरा था और जगह-जगह नुकिले पत्थर भी बिखरे पड़े थे। उनके चुभने से असहनीय पीड़ा भी हो रही थी। सभी असमंजस में पड़ गए। अब तक तो सब एक जैसा बर्ताव कर रहे थे, परन्तु यहाँ आते ही सब अलग-अलग व्यवहार करने लगे। खैर, सबने जैसे-तैसे दौड़ पूरी की और गुरुजी के समक्ष जा खड़े हुए।
सबके आ जाने पर गुरुजी ने पूछा, “पुत्रों मैं देख रहा हूँ कि आप में से कुछ ने दौड़ बहुत जल्दी पूरी कर ली, जबकि कुछ को बहुत अधिक समय लगा, भला ऐसा क्यों हुआ? एक शिष्य ने बताया कि गुरुजी सुरंग आने तक तो हम सब लगभग साथ साथ ही दौड़ रहे थे। परन्तु सुरंग में प्रवेश करते ही स्थिति बदल गई। अंधेरा होने के कारण सब एक दूसरे को धक्का देते हुए आगे निकलने की कौशिश में लग गए। कुछ संभल संभल कर आगे बढ़ रहे थे तो कुछ ऐसे भी थे जो पैरों में चुभने वाले कंकड़ों को उठा उठा कर अपनी जेब में इस हेतु से रख रहे थे कि पीछे आने वालों को कष्ट न हों। इसलिए सबको दौड़ पूरी करने में अलग अलग समय लगा।
गुरुजी ने कहा, ठीक है। जिन-जिन ने पत्थर उठाए हैं वे आगे आएं और मुझे वे पत्थर दिखाएँ। आदेश सुनते ही कुछ शिष्य आगे आए और पत्थर निकालने लगे। अरे! यह क्या? जिन्हें पत्थर समझकर जेब में रखा था, वे तो कीमती हीरे निकले। सभी आश्चर्यचकित हो गुरुजी की ओर देखने लग गए। तब गुरुजी ने कहा, मैं जानता हूँ, आप लोग इन हीरों को देखकर आश्चर्य में पड़ गए हो। मैंने ही इन्हें सुरंग में बिखेरा था।
जिन शिष्यों ने कठिन परिस्थिति में भी दूसरों को कष्ट न हों इसकी चिंता की उन्हें यह मेरी तरफ से पुरस्कार है। देखो पुत्रों! अब तुम्हें समाज जीवन अपनाना है। वही समाज उन्नति करता है जिसके नागरिक स्वार्थ से ऊपर उठकर परार्थ में लगे रहते हैं। इसलिए आप अपने जीवन में सफलता का जो भवन खड़ा करें, उसमें परोपकार की ईंटें लगाना कभी भी न भूलें। अंततः वही आपकी अनमोल पूंजी होगी।
सांस्कृतिक समाजशास्त्र के प्रमुख बिन्दु
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भारत में गृहव्यवस्था, शिक्षाव्यवस्था और राज्य व्यवस्था मिलकर समाजव्यवस्था बनती है। गृह व्यवस्था समाज व्यवस्था की लघुतम इकाई है। पति-पत्नी इस व्यवस्था के केन्द्रवर्ती घटक हैं। एकात्म सम्बन्ध सिद्ध करने का यह प्रारम्भ बिन्दु है। इस बिन्दु से परिवार भाव का विस्तार होते-होते सम्पूर्ण विश्व तक पहुँचता है। तभी तो ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ कहा गया है। विवाह संस्कार इसका प्रमुख कारक है। भारतीय समाज व्यवस्था में विवाह एक संस्कार है, करार नहीं। घर अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र और संस्कृति की प्रयोगशाला है। उस गृह का संचालन गृहिणी का कर्तव्य है। जीवन यापन की अन्य व्यवस्थाओं की भाँती अर्थार्जन भी गृह व्यवस्था का ही एक भाग है।
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समाज का सांस्कृतिक रक्षण व नियमन करने वाली व्यवस्था का नाम शिक्षा व्यवस्था है। व्यावहारिक रक्षण व नियमन करने वाली व्यवस्था, राज्य व्यवस्था है। शिक्षा व्यवस्था धर्म व्यवस्था की प्रतिनिधि है और राज्य व्यवस्था उसे लागू करवाती है। ये दोनों परस्पर पूरक हैं। एक कानून बनाती है तो दूसरी कानून का पालन करवाती है। एक कर वसूली के नियम बनाती है तो दूसरी कर वसूल करती है। एक परामर्शक है तो दूसरी शासक है। शिक्षा का क्षेत्र धर्म का क्षेत्र है और न्यायालय राज्य का क्षेत्र है।
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व्यावहारिक शिक्षा का अधिकांश भाग परिवार में होता है। केवल शास्त्रीय शिक्षा विद्यालयों में होती है। भारत की पारम्परिक शिक्षा व्यवस्था यही थी। आज की भाँति राज्य को शिक्षा की इतनी अधिक चिंता नहीं करनी पड़ती अर्थात् शिक्षा राज्य का विषय नहीं था। शिक्षा का काम तो शिक्षक और धर्माचार्य ही संभालते थे। राज्य तो सदैव सहयोगी की भूमिका निभाता था।
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धर्म व्यवस्था, जाति व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था भारतीय समाज के मूल तत्त्व हैं। इन सबके दायित्व धर्म ग्रन्थों में विस्तार से वर्णित हैं। ऋषिऋण, पितृऋण और देवऋण के माध्यम से वंश परंपरा और ज्ञान परम्परा निभाने की तथा सृष्टि के साथ सामंजस्य बनाए रखने का दायित्व गृहस्थ को दिया गया। इस दायित्व का वहन करने वाला श्रेष्ठ माना गया। इसीलिए गृहस्थाश्रम को चारों आश्रमों में श्रेष्ठतम माना गया है। इन ऋणों से मुक्त होने के लिए पंच महायज्ञों का विधान बताया गया है। ये महायज्ञ हैं – ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ। इसी तरह मनुष्य जीवन को संस्कारित करने के लिए सोलह संस्कारों की व्यवस्था की गई। मनुष्य जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु पर्यन्त की संस्कार व्यवस्था का समावेश इसमें है।
यहाँ सांस्कृतिक समाज व्यवस्था के मूल तत्त्वों को बतलाया गया है, परन्तु वर्तमान की दुविधा यह है कि इस भारतीय विचार की हमारे द्वारा घोर उपेक्षा की जाने से इसकी दुर्गति हुई है। दुर्गति होने के कारण हमें यह पता ही नहीं चला कि हमने अपनी अमूल्य सम्पदा ही खो दी है। इसका प्रमुख कारण आधुनिक शिक्षा है। अतः हमें पाश्चात्य आधुनिकता के भूत को अपने सिर से उतार फैंका है और नये सिरे से अध्ययन व अनुसंधान की युगानुकूल रचना खड़ी करनी है। ऐसा करने से ही समाज शास्त्र विषय का सांस्कृतिक स्वरूप पुनः पाठ्यक्रम में सम्मिलित हो पाएगा।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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