भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 54 (पठनीय विषयों का सांस्कृतिक स्वरूप)

– वासुदेव प्रजापति

 

भारतीय ज्ञानधारा का मूल अधिष्ठान अध्यात्म है। अध्यात्म जब नियम व व्यवस्था में रूपान्तरित होता है, तब वह धर्म का स्वरूप धारण करता है। जब वह व्यवहार की शैली में उतरता है, तब संस्कृति बनता है। हमारे देश में, प्रत्येक घर में, विद्यालय में जो विचारों का आदान-प्रदान होता है, सब प्रकार के कार्यक्रमों में औपचारिक या अनौपचारिक पद्धति से जो ज्ञानधारा प्रवाहित होती है, उसका स्वरूप सांस्कृतिक होना चाहिए। यदि उसका स्वरूप भौतिक है तो वह भारतीय नहीं है और उसका स्वरूप सांस्कृतिक है तो वह भारतीय है। ऐसा स्पष्ट विभाजन हम कर सकते हैं।

दूसरा समझने का बिन्दु यह है कि सांस्कृतिक स्वरूप, भौतिक स्वरूप का विरोधी नहीं है। वह भौतिक स्वरूप के लिए भी अधिष्ठान है। सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप से ऊपर है। इसी परिप्रेक्ष्य में आज हम पठनीय विषयों के सांस्कृतिक स्वरूप को समझेंगे।

विषयों का वरीयता क्रम

समग्र विकास की हमारी संकल्पना के अनुसार सभी विषयों का वरीयता क्रम निर्धारित होना चाहिए। यह क्रम ऐसा बनता है-

१. परमेष्ठी से सम्बन्धित विषय प्रथम क्रम में आयेंगे। ये विषय हैं- अध्यात्म शास्त्र, धर्म शास्त्र, तात्त्विक शास्त्र और संस्कृति।

२. दूसरे क्रम पर सृष्टि से सम्बन्धित विषय – भौतिक विज्ञान (इसमें रसायन विज्ञान, जीवन विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, खगोल, भूगोल और विज्ञान के अन्य विषयों का समावेश होगा।), इनके साथ पर्यावरण व सृष्टि विज्ञान भी आयेंगे।

३. तीसरे क्रम पर समष्टि से सम्बन्धित विषय आयेंगे। यह क्षेत्र सबसे व्यापक है, इसमें सभी सामाजिक शास्त्र जैसे- समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, वाणिज्यशास्त्र, उत्पादनशास्त्र (सभी प्रकार की कारीगरी के शास्त्र, तंत्रज्ञान और कृषि कार्यों का समावेश होता है।) इनसे सम्बन्धित विषय-उपविषय अनेक हो सकते हैं।

४. व्यष्टि से सम्बन्धित विषय चौथे क्रम पर आयेंगे। इनमें योग, शारीरिक, मनोविज्ञान, आहारशास्त्र, गणित, संगीत, साहित्य आदि विषयों का समावेश होगा।

इस प्रकार व्यापकता के आधार पर विषयों की वरीयता निर्धारित होती है। वरीयता में जो विषय जितना ऊपर होता है, उसे उतनी ही छोटी आयु से पढ़ाना प्रारम्भ करना चाहिए। और पढ़ाते समय भी विषयों के परस्पर सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए पढ़ाना चाहिए।

अब हम कुछ विषयों का सांस्कृतिक स्वरूप जानेंगे –

अध्यात्म,धर्म, संस्कृति एवं तत्त्वज्ञान

ये सभी आधारभूत विषय हैं। इन चारों विषयों को अन्य सभी विषयों का अधिष्ठान मानकर पढ़ाना चाहिए। अर्थात् शेष सभी विषय इनके प्रकाश में ही पढ़ाए जाने चाहिए। जब ऐसा होगा, तभी यह सांस्कृतिक स्वरूप माना जाएगा। समझने के लिए भाषा हो या भौतिक विज्ञान हो, अर्थशास्त्र हो या राज्यशास्त्र हो, तंत्रशास्त्र हो या संगणक हो, इन सभी विषयों का स्वरूप अध्यात्म के अविरोधी होगा और इनके खुलासे अध्यात्म के सिद्धांतों के अनुसार दिए जाएंगे, तभी इनका स्वरूप सांस्कृतिक कहलाएगा। यदि अन्य विषयों को विज्ञान के प्रकाश में पढ़ाया जायेगा तो उनका स्वरूप भौतिक कहलाएगा।

उदाहरण के लिए उत्पादन शास्त्र में यंत्र आधारित उद्योग होने चाहिए या नहीं। अथवा यंत्रों का उपयोग कितना करना चाहिए, यह निश्चित करते समय पहले यह देखा जाएगा कि इस सम्बन्ध में धर्म और अध्यात्म क्या कहते हैं। यदि इनकी सम्मति है तो करना चाहिए, अन्यथा त्याग देना चाहिए। ऐसे ही आहारशास्त्र हेतु धर्म, संस्कार, प्रदूषण व आरोगयशास्त्र का पहले विचार करना चाहिए। व्यक्ति की दिनचर्या का निर्धारण करते समय धर्म क्या कहता है, पहले इसका विचार करना चाहिए।

अध्यात्म, धर्म व संस्कृति का स्वतन्त्र रूप से भी अध्ययन आवश्यक है। चिन्तन के स्तर पर अध्यात्म शास्त्र का अध्ययन, व्यवस्था के स्तर पर धर्म शास्त्र का अध्ययन और व्यवहार के स्तर पर संस्कृति का अध्ययन शिशु अवस्था से लेकर उच्च शिक्षा तक सर्वत्र अनिवार्य होना चाहिए।

आत्मतत्त्व की संकल्पना

आत्मतत्त्व की संकल्पना केवल भारत में है। इस संकल्पना के स्रोत से समस्त ज्ञानधारा प्रवाहित हुई है। इसके आधार पर जीवनदृष्टि बनी है। हम यह भी कह सकते हैं कि भारतीय जीवनदृष्टि और आत्मतत्त्व की संकल्पना एक दूसरे में ओतप्रोत है। आत्मतत्त्व अनुभूति का विषय है। आत्मतत्त्व के समान ही अनुभूति भी भारत की विशेषता है। हमने अनुभूति प्राप्त नहीं की है, फिर भी हम अनुभूति का अस्तित्व स्वीकार करके चलते हैं। इस अनुभूति को बौद्धिक स्तर पर लाने के लिए तत्त्वज्ञान का विषय बना है। अनेक बार हम अंग्रेजी शब्द फिलोसॉफी का अनुवाद दर्शन करते हैं, जो उचित नहीं है। फिलोसॉफी के स्तर का शब्द तत्त्वज्ञान हो सकता है, दर्शन नहीं। आत्मतत्त्व की भांति दर्शन और अनुभूति शब्दों का अंग्रेजी अनुवाद नहीं हो सकता।

अध्यात्मशास्त्र हमें प्रमाण देता है

अध्यात्मशास्त्र हमें प्रमाण व्यवस्था देता है। प्रमाण के लिए हम बौद्धिक स्तर पर उतरते हैं, और शास्त्रों की रचना करते हैं। अनुभूति आधारित शास्त्रों को ही हम प्रमाण मानते हैं। आज न तो हम अनुभूति करते हैं और न शास्त्रों का सूक्ष्म अध्ययन ही करते हैं और न उन्हें युगानुकूल पद्धति से समझते हैं। इसलिए हमारे शास्त्रों पर अनेक प्रश्नचिन्ह लगाए जाते हैं। अतः जो विद्वान भारतीयता के पक्षधर हैं, उनके लिए अनुभूति के शास्त्रों का गहन अध्ययन और अनुसंधान का विशाल क्षेत्र उनकी प्रतीक्षा कर रहा है।

इसी प्रकार आज धर्म को विवाद का विषय बना दिया गया है। प्रथम तो धर्म को विवाद से मुक्त करने की आवश्यकता है। फिर उसे बौद्धिक जगत में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है। यह भी अध्ययन और अनुसंधान का विषय है। धर्म का ही कृति रूप संस्कृति है। भारतीय जीवनशैली ही हमारी संस्कृति है। जबकि हम केवल सौन्दर्य को, नृत्यादि को, कला-कृतियों को और मात्र मनोरंजन को ही संस्कृति मान रहे हैं। सरकार का सांस्कृतिक मंत्रालय और विश्वविद्यालय दोनों संस्कृति को केवल सांस्कृतिक कार्यक्रमों तक ही सीमित रख रहे हैं। इस मानसिकता को बदलने की आवश्यकता है। आज अध्यात्म के अभाव में संस्कृति मात्र मनोरंजन में कैद हो गई है। हमें उसे भी कैद से मुक्त करवाना है।

 

वैश्विकता के सन्दर्भ में इनका अध्ययन

अध्यात्म, धर्म, संस्कृति एवं तत्त्वज्ञान जैसे विषयों पर आज वैश्विकता का साया पड़ा हुआ है। इसलिए हमें वैश्विकता को भी सांस्कृतिक अर्थ में समझने की आवश्यकता है। भारत प्रारम्भ से ही सांस्कृतिक वैश्विकता का पक्षधर रहा है। अतः वैश्विकता के भारतीय अर्थ को प्रस्थापित करने से ही इन विषयों के साथ न्याय होगा।

आज अधिकांश लोग यह मानते हैं कि ये चारों विषय अत्यधिक गंभीर व कठिन हैं। इसलिए इन विषयों को छोटी आयु में नहीं पढ़ाया जा सकता। क्योंकि उच्च शिक्षा के कुछ ही छात्र इन विषयों को समझ पाते हैं। परन्तु यह मानकर चलना उचित नहीं है। इन विषयों को पढ़ने से पूर्व इनके संस्कार करने होंगे। इन विषयों को आचार के रूप में पालन करवाना होगा। तत्पश्चात इन विषयों को विचार के स्तर पर लाना होगा। आचार और विचार को आध्यात्मिक बनाने के बाद इनके बारे में शास्त्रीय पद्धति से पढ़ना होगा। ये सब किए बिना सीधे शास्त्र पढ़ने से कोई लाभ नहीं मिलेगा।

आत्मतत्त्व, ईश्वर, धर्म, सम्प्रदाय, संस्कृति, सभ्यता और कर्मकाण्ड जैसे विषयों के बारे में तुलनात्मक अध्ययन करना, देश-विदेश में इन क्षेत्रों में क्या चल रहा है, उसका आकलन करना। इनकी क्या समस्या है, उसे पहचानना, उनका निराकरण कैसे हो सकता है, इसका ज्ञानात्मक विचार करना। यह सब इन विषयों के अन्तर्गत आता है।

हमें अपनी त्रुटि को सुधारना है

आधारभूत विषयों के सम्बन्ध में सारभूत बात यही है कि हमने इन विषयों की घोर उपेक्षा की है, और पाश्चात्य विद्वानों ने इनको गलत समझा है। आज भी पाश्चात्य विद्वान हमारे शास्त्र ग्रंथों का ग़लत अर्थ प्रस्तुत करते हैं और उन्हें अधिकृत मनवाने का आग्रह करते हैं। आश्चर्य तो तब होता है, जब हमारे ही विश्वविद्यालयों के अध्ययन मंडल पाश्चात्य ग्रंथों को अधिकृत मान लेते हैं। मेक्समूलर के समय से शुरु हुई यह परम्परा आज भी यथावत है। हमें इस गलत परम्परा से मुक्त होने की आवश्यकता है। इस गलत परम्परा से मुक्त होने के लिए हमें इन विषयों का गहन अध्ययन और अनुसंधान करना होगा।

भारत की पहचान आध्यात्मिक देश की है। भारतीय समाज धर्मनिष्ठ है, भारत की संस्कृति सर्वसमावेशी है। इस बात को ज्ञानात्मक दृष्टि से समझकर, गहन अध्ययन और अनुसंधान कर, पठनीय विषयों को सांस्कृतिक स्वरूप में लाकर उन्हें शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित कर सकते हैं और शिक्षा को पुनः भारतीय बना सकते हैं।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

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