भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 60 (सांस्कृतिक इतिहास)

 – वासुदेव प्रजापति

हम इतिहास को राजकीय इतिहास के रूप में ही पढ़ाते हैं। सांस्कृतिक इतिहास भी होता है, इसका हमें भान ही नहीं है। आज शासन, प्रशासन व राजनीति इतने महत्त्वपूर्ण मामले हो गए हैं कि हमें लगता है, इन्हीं से इतिहास बनता है। ब्रिटिश शासन ने समाज की स्वायत्तता भंग कर सत्ता अपने हाथ में ले ली थी। तब से हमारी मानसिकता धीरे-धीरे शासन केन्द्रित या राज्य केन्द्रित बन गई है। हमने आज भी सारी सत्ता शासन और प्रशासन के हाथ में दे रखी है। राजाओं या शासनकर्ताओं को केन्द्र में रखकर बीते हुए समय के वर्णन को हम इतिहास मान रहे हैं।

भारतीय ज्ञान परम्परा में इतिहास

भारत में ‘महाभारत’ व ‘पुराणों’ को इतिहास माना गया है। आज इन पर ही प्रश्न चिन्ह लगाए जा रहे हैं। इन्हें काल्पनिक बताया जा रहा है। हमारी दुविधा यह है कि हम पाश्चात्य विद्वानों की परिभाषा स्वीकार कर उसे अपने ग्रन्थों पर लागू कर उन्हें इतिहास ग्रंथ सिद्ध करने में लगे हैं। एक बहुत छोटा समूह ही इन्हें इतिहास ग्रंथ मानता है, जबकि अधिकांश विद्वान महाभारत व पुराणों को धर्मग्रंथ ही मानते हैं, इतिहास ग्रंथ नहीं मानते। भारत में इतिहास की परिभाषा यह है –

धर्मार्थकाममोक्षाणाम् उपदेशसमन्वितम्।

पुरावृत्तं  कथारूपं  इतिहासं  प्रचक्षते।।

अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का जिसमें उपदेश मिलता है, जो पूर्व में हो चुका है और जिसे कथारूप में बताया गया है, वह इतिहास है।

हमारे देश में इतिहास पढ़ने का प्रयोजन बिल्कुल स्पष्ट है। इतिहास व्यक्ति को जीवन जीने का मार्ग दिखाने वाला होना चाहिए। इस दृष्टि से प्रेरक चरित्र और प्रेरक घटनाओं का सर्वाधिक महत्त्व है। साथ में यह अपेक्षा भी की गई है कि वह सरस व रोचक ढ़ंग से वर्णित होना चाहिए। उदाहरण के लिए हमारे यहाँ कहा गया है, “रामादिवद्वर्तितव्यम् न रावणादिवत्” अर्थात् राम जैसे लोगों की तरह व्यवहार करना चाहिए, रावण जैसे लोगों की तरह नहीं। ऐसा उपदेश ही इतिहास बताने का प्रयोजन है।

इससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि राजाओं का इतिहास राजनैतिक इतिहास है और संस्कृति का इतिहास सांस्कृतिक इतिहास है।

महाभारत कालीन ऐतिहासिक कथा ‘शान्ति दूत श्रीकृष्ण’

महाभारत के युद्ध की तैयारियाँ दोनों पक्षों में चल रही थी। दोनों ही पक्ष श्रीकृष्ण का सहयोग चाहते थे। कौरवों की ओर से दुर्योधन और पांडवों की ओर से अर्जुन श्रीकृष्ण के पास गए। श्रीकृष्ण ने बताया मेरे लिए तुम दोनों बराबर हो। मैं तुम दोनों का सहयोग करना चाहता हूँ। एक के लिए मेरी सम्पूर्ण नारायणी सेना है और दूसरे के लिए अकेला मैं हूँ वह भी निशस्त्र। बोलो दुर्योधन तुम्हें क्या चाहिए? दुर्योधन ने उनकी नारायणी सेना को माँगा और अर्जुन ने श्रीकृष्ण को स्वीकारा।

श्रीकृष्ण युद्ध की विभीषिका से भली-भाँती परिचित थे। वे युद्ध को टालना चाहते थे। उन्होंने पांडवों को युद्ध टालने के लिए तैयार कर लिया। अब वे पाण्डवों की ओर से शान्ति दूत बनकर दुर्योधन के पास गए। उन्होंने ग्यारह अक्षौहिणी सेना के राजा दुर्योधन से कहा, राजन् आप युधिष्ठिर को उनका पूरा राज्य नहीं देना चाहते तो आधा राज्य ही लौटा दो, और युद्ध का विचार त्याग दो। परन्तु दुर्योधन उन्हें आधा राज्य भी देने को तैयार नहीं हुआ। तब श्रीकृष्ण ने उससे केवल पांच गाँव ही माँगे। तब दुर्योधन ने कहा, मैं तो उन्हें सुई की नोक के बराबर भूमि भी नहीं दूंगा।

दुर्योधन द्वारा स्पष्ट मना कर देने पर शान्ति दूत बने श्रीकृष्ण ने कहा, अब तो युद्ध अवश्यंभावी है, तुम युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। दुर्योधन तो पहले से षडयंत्र रच चुका था। वह श्रीकृष्ण को ही बन्दी बनाने को उद्यत हो गया। उस समय कौरवों की भरी सभा में श्रीकृष्ण ने अपना दुर्धर्ष विश्वरूप दिखाकर दुर्योधन को भयभीत कर दिया। सभा में विदुर जी उपस्थित थे, वे आगे आए। श्रीकृष्ण को शांत कर अपने घर ले गए, भगवान का पूजन सत्कार किया और उन्हें भोजन करवाया। तत्पश्चात वे लौट आए।

श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को वहां का सारा हाल बताकर कहा, अब आप युद्ध करके ही अपना राज्य प्राप्त कीजिए। दोनों पक्षों की सेनाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में आ डटीं। तब अपने सामने युद्ध के लिए उद्यत पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणादि गुरुजनों को देखकर अर्जुन युद्ध से विरत हो गए। तब भगवान श्रीकृष्ण ने जो उस समय अर्जुन के सारथि बने हुए थे, उन्होंने अर्जुन को समझाया। श्रीकृष्ण का अर्जुन को दिया गया यह उपदेश श्रीमद्भगवद्गीता के नाम से प्रसिद्ध है। गीता के इस उपदेश में उन्होंने कहा, “हे पार्थ! भीष्मादि गुरुजनों के लिए शोक करना उचित नहीं है। मनुष्य का शरीर विनाशी है, किन्तु आत्मा अविनाशी है। यह आत्मा परब्रह्म है। मैं ब्रह्म हूँ, तुम इस आत्मा को समझो। कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समभाव रखते हुए, कर्मयोग का आश्रय ले अपने क्षात्रधर्म का पालन करो।” श्रीकृष्ण के इस प्रकार समझाने पर अर्जुन रथारूढ़ हो युद्ध में प्रवृत्त हुआ।

इधर से अर्जुन ने शंखनाद किया तो उधर से सेनापति भीष्म ने भी शंखध्वनि की। दोनों सेनाओं के मध्य भयंकर युद्ध छिड़ गया। भीष्म सहित कौरव सेना के योद्धा पाण्डव पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे तो पाण्डवों की ओर से शिखण्डी आदि वीर कौरव सैनिकों पर अपने बाणों की वर्षा करने लगे। कौरवों और पांडवों का यह युद्ध देवासुर संग्राम के समान प्रतीत हो रहा था। आकाश में खड़े होकर देख रहे देवताओं को यह युद्ध बड़ा ही आनन्ददायक जान पड़ता था। प्रथम सेनापति भीष्म ने दस दिनों तक भीषण युद्ध कर पांडवों की अधिकांश सेना को मार गिराया। पांडव धर्म के मार्ग पर चल रहे थे, जबकि दुर्योधन का मार्ग अधर्म का था। भगवान श्रीकृष्ण पांडवों के साथ थे। युद्ध में सभी अधर्मी कौरव मारे मारे गए। अन्तिम विजय पांडवों की हुई। इसलिए कहा गया, जहाँ धर्म है वहीं विजय है।

‘यतोधर्मस्ततोजय’ इतिहास का मुख्य उद्देश्य

इतिहास का मुख्य उद्देश्य सांस्कृतिक परम्परा का निर्वहन करना है। इस दृष्टि से कुछ प्रमुख बिन्दुओं की ओर ध्यान देना आवश्यक है।

  • धर्म रक्षार्थ किए गए युद्ध, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में किए गए अनुसंधान एवं सृजन, यज्ञ-उत्सव आदि का समावेश इतिहास में होता है। उदाहरण के लिए कुंभ मेले का प्रारम्भ, वेदकालीन दाशराज्ञ युद्ध, राम-रावण युद्ध, श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश, आद्य शंकराचार्य का शास्त्रार्थ, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह जी द्वारा धर्म रक्षार्थ किए गए प्रयत्न, गोरक्षा आन्दोलन, खेजड़ली का वृक्ष बचाओ आन्दोलन आदि ऐतिहासिक घटनाओं के रूप में प्रेरक सिद्ध होते हैं।
  • साहित्य, संगीत, कला, स्थापत्य आदि क्षेत्रों की उपलब्धियाँ, भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में हुए आविष्कार, शास्त्रों व ज्ञानपरम्परा के महत्त्वपूर्ण आयाम भी इतिहास के विषय हो सकते हैं।
  • भारत द्वारा विश्व में की गई सांस्कृतिक विजय भी इतिहास का विषय है। इसी प्रकार विश्व का सांस्कृतिक इतिहास, विश्व के सांस्कृतिक मंच पर भारत का स्थान तथा मानवता की प्रगति में भारत का योगदान भी इतिहास का विषय बनता है।
  • देश की सांस्कृतिक एकात्मता दर्शाने वाले सभी तत्त्व इतिहास के विषय हैं। देश के विभिन्न राज्यों में भाषा, भूषा, खानपान, रंगरूप, जलवायु आदि की भिन्नता होने पर भी भारत सदैव एक सांस्कृतिक राष्ट्र रहा है, इस बात पर सर्वाधिक बल देना आवश्यक है।
  • अन्य विषयों की भांति इतिहास पर भी पाश्चात्य दृष्टि का गहरा प्रभाव है। समय निर्धारण की एक ऐसी समस्या खड़ी की गई है, जिसके आधार पर भारत की प्रत्येक बात को नकारा जा सकता है। वहीं हमारा भी यह मूलभूत दोष है कि हम भारतीय ज्ञानधारा को अभारतीय मापदण्डों पर सही बताने के प्रयास को ही अपना पुरुषार्थ मानते हैं। हमें इस प्रवृत्ति से उबरना होगा और अपना स्वीकार करना ही उचित रहेगा।

सार रूप में यही कहना समीचीन होगा कि राजाओं और राजकुलों का इतिहास राजनैतिक इतिहास होता है,जबकि राष्ट्र का, संस्कृति का और समाज का इतिहास ही सांस्कृतिक इतिहास होता है। हमें सांस्कृतिक इतिहास ही पढ़ाना है।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

और पढ़ेंभारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-59 (सांस्कृतिक अर्थशास्त्र, भाग-2)

3 thoughts on “भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 60 (सांस्कृतिक इतिहास)

  1. नमो नमः
    भारतीय संस्कृती एवं परंपरा निर्वाह हेतू नयी पिढी जो भविष्य मे उज्वल भारत कि गरिमा कायम रखते हुये अखिल विश्र्व को वसुधैव कुटुम्बकम् का अनुपालन करेंगे। हम शिक्षक नया भारत के निर्माण कार्य से प्रेरित हो।
    धन्यवाद ।
    वन्दे मातरम्।
    श्रीमती अंजली भवानीशंकर देव
    प्रधानाचार्या – मणीबाई गुजराती हायस्कूल ,ज्युनियर काँलेज, अमरावती. महाराष्ट्र..

  2. सादर प्रणाम,
    निश्चित रूप से धर्म ही राष्ट्र का मार्ग प्रशस्त करता है और धर्म वही है जिसके आधार पर समाज में संस्कृति और सामाजिक विकास प्रारंभ हो जाता है इसलिए कहा है जहां धर्म है वही जीत है और इससे राष्ट्रीय शिक्षा नीति में महत्वपूर्ण स्थान आवश्यक

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