– वासुदेव प्रजापति
भाषा मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ अविभाज्य अंग के समान जुड़ी हुई है। भाषा विहीन व्यक्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मनुष्य जब इस जन्म की यात्रा शुरु करता है, तब से भाषा उसके व्यक्तित्व का भाग बन जाती है। उसी समय से वह भाषा सीखना शुरु करता है। उसका पिण्ड माता-पिता से बनता है। उसके शरीर में रक्त और मांस की तरह भाषा भी होती है। इसलिए माता-पिता की भाषा के संस्कार गर्भाधान के समय से ही उसमें होने लग जाते हैं। यही कारण है कि मातृभाषा प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुपरिचित और अपनी भाषा होती है।
शिशु भाषा को संस्कार रूप में ग्रहण करता है
शिशु जब माँ की कोख में होता है, तब उसके माता-पिता तथा निकट के व्यक्तियों की भाषा उसके कानों पर पड़ती है। उस समय वह उन शब्दों के अर्थ नहीं समझता, क्योंकि उसकी बुद्धि सक्रिय नहीं होती। उस समय उसका चित्त सर्वाधिक सक्रिय होता है। चित्त सारे अनुभवों को संस्कार रूप में ग्रहण करता है। ये संस्कार इन्द्रिय गम्य, मनोगम्य वह बुद्धिगम्य होते हैं। ये इन्द्रियां, मन व बुद्धि उसके माता-पिता और निकट के व्यक्तियों के होते हैं। फिर भी गर्भस्थ शिशु उनके अनुभवों को संस्कारों के रूप में ग्रहण कर लेता है। उस समय वह बोल तो नहीं सकता किन्तु समझ सकता है। इस स्थिति में भी उसका भाषा शिक्षण अत्यन्त प्रभावी रूप से होता है। शिशु न केवल भाषा के ध्वनि रूप को सुनता है, अपितु वह उसका मर्म भी ग्रहण करता है। और यह मर्म वह बिना किसी त्रुटि के सही-सही ग्रहण करता है।
शिशु जब जन्म लेता है, तब उसकी अभिव्यक्ति वयस्क व्यक्ति की अभिव्यक्ति जैसी नहीं होती। इसका अर्थ यह नहीं है कि उसे भाषा का ज्ञान नहीं है। अपितु शिशु उस समय भी भाषा के अनुभवों का धनी होता है। हाँ, अभिव्यक्ति में वह अवश्य अक्रिय होता है, परन्तु भाषा अनुभवों को ग्रहण करने में अत्यधिक सक्रिय होता है।
यहाँ हम गर्भकाल में मिले संस्कारों की कथा का मर्म समझेंगे।
माँ से सीखा मंत्रोच्चारण
एक थे ऋषि। नाम था उद्दालक। उनका एक गुरुकुल था। गुरुकुल में अनेक ब्रह्मचारी थे। वे वेदों का अध्ययन करते थे। उद्दालक स्वयं वेदों के प्रकांड पंडित थे। उनकी एक पुत्री थी। पुत्री का नाम सुजाता था। सुजाता भी पिता से वेदों का ज्ञान सीखती थी। वह भी विदुषी बनी। पिता ने उसका विवाह अपने ही शिष्य कहोड़ के साथ कर दिया। विवाह के कुछ समय बाद सुजाता की कोख भरी। उसने मन ही मन निश्चय किया कि मेरा होने वाला पुत्र भी मेरे पिता के समान ही वेदज्ञ हो। इसलिए वह भी गुरुकुल में छोटे-छोटे ब्रह्मचारियों को वेद मंत्रों का उच्चारण सिखाने लगी। जब वह वेदोच्चार करवाती, तब उसकी कोख में पल रहा पुत्र भी माता का बोला हुआ सुनता था। प्रतिदिन माँ से सुन-सुन कर वह भी वेद मंत्र बोलना सीख गया।
एक दिन उसके पिता कोहड़ मुनि अपने शिष्यों को वेद मंत्रों का पाठ करना रहे थे। उनके समीप ही उनकी माता सुजाता भी बैठी हुई थीं। इसलिए पिता के द्वारा बुलवाए जा रहे वेद मंत्रों को वह भी सुन रहा था। उसके पिता ने ज्यों ही अगला मंत्र बोला तो यह अपनी माँ की कोख में से ही बोला, पिताश्री आप ग़लत उच्चारण कर रहे हैं। कोहड़ा मुनि ने सुना, उन्होंने इधर-उधर देखा भी किन्तु उन्हें कोई दिखाई नहीं दिया। वे पुनः वहीं मंत्र बुलवाने लगे। उसने फिर से अपने पिता को टोका, पिताश्री आप ग़लत उच्चारण कर रहे हैं। इस बार कोहड़ मुनि ने क्रोधित होकर पूछा, मुझे टोकने वाले तुम कौन हो? मेरे सामने आओ। तब इसने अपनी माँ की कोख में से ही उत्तर दिया, मैं आपका ही पुत्र अपनी माँ की कोख में से बोल रहा हूँ, आप इस मंत्र का उच्चारण गलत कर रहे हैं। कोहड़ मुनि पुत्र का उत्तर सुनकर और अधिक क्रोधित हो गए। उन्होंने अपने पुत्र को कहा, “अभी तो तुम जन्मे भी नहीं हो और उससे पहले ही टेढ़ी बातें बोल रहे हो। तुम्हारी इस धृष्टता के लिए मैं तुम्हें शाप देता हूँ। जाओ तुम आठ जगह से टेढ़े जन्म लोगे”। पिता का शाप फलीभूत हुआ, वह जन्म से ही आठ जगह से टेढ़ा-मेढ़ा था। इसलिए उसका नाम अष्टावक्र पड़ा।
बड़े होकर अष्टावक्र अपने नाना ऋषि उद्दालक के समान ही वेदज्ञ ऋषि बने। आगे जाकर जनक की सभा में उसी विद्वान से शास्त्रार्थ करने पहुँच गए, जिनसे शास्त्रार्थ में हारने वाले को जल समाधि लेनी पड़ती थी। उसके पिता भी शास्त्रार्थ में उससे हार गए थे, इसलिए उन्हें भी जल समाधि लेनी पड़ी थी। अष्टावक्र ने राजा जनक की भरी सभा में उस विद्वान को हराया। शास्त्रार्थ की शर्त के अनुसार सबने उस विद्वान को भी जल समाधि लेने को बाध्य किया। किन्तु अष्टावक्र ने राजा जनक से कहकर उन्हें क्षमादान दिलवाया और उस दिन से ही इस शर्त को हटवा दिया।
यह कथा सिद्ध करती है कि गर्भ में पल रहा शिशु संस्कार रूप में सीखता है, और उसका यह सीखना त्रुटि रहित होता है। इसीलिए हमारे समाज में गर्भकाल में माता को अच्छा साहित्य पढ़ना, महापुरुषों की कथाएँ सुनना, सात्त्विक आहार एवं सदाचार पूर्ण जीवन व्यवहार रखने का आग्रह किया जाता है। हमारा यह पक्का विश्वास है कि गर्भकाल में शिशु को जैसे संस्कार मिलते हैं, वैसा ही उसका व्यक्तित्व बनता है।
भाषा मनुष्य की विशेषता है
भाषा संवाद का एक सशक्त माध्यम है। मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी जीव अपनी-अपनी पद्धति से परस्पर संवाद तो करते हैं, परन्तु बोलकर संवाद नहीं करते। इसलिए वह भाषा नहीं कहलाती। भाषा के बारे में कहा गया है- “या भाष्यते सा भाषा” अर्थात् जो बोली जाती है, वही भाषा है। अर्थात् मनुष्य को छोड़कर अन्य कोई भी जीव नहीं बोलता, इसलिए उनकी कोई भाषा नहीं होती।
शब्द और अर्थ दोनों मिलकर भाषा बनती है। वह भाषा का अर्थरूप सही-सही ग्रहण करता है, जबकि शब्द रूप संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। शब्द का उच्चारण करने के लिए उसका ध्वनि तंत्र पर्याप्त मात्रा में सक्षम नहीं होता, इसलिए वह बोल नहीं पाता। परन्तु जैसे-जेसे वह बड़ा होता जाता है, वैसे-वैसे उसका ध्वनि तंत्र सक्षम होता जाता है, वह उच्चारण करने लगता है। स्वर और व्यंजनों का सही उच्चारण वह सुनकर ही सीखता है। सुनने के अतिरिक्त भाषा सीखने का और कोई तरीका नहीं है। जो सुन नहीं सकता, वह बोल भी नहीं पाता है। इसी कारण बहरा व्यक्ति गूंगा भी होता है। इसलिए जो जितना शुद्ध उच्चारण सुनता है, वह उतना ही शुद्ध बोलता है।
भाषा संवाद का सशक्त माध्यम है
भाषा का शब्द रूप ध्वनि है। ध्वनि का सम्बन्ध किन-किन से और कैसा- कैसा है? ध्वनि का सम्बन्ध पंचमहाभूतों के साथ है। शब्द आकाश महाभूत का विषय है। सभी महाभूतों में आकाश सूक्ष्मतम है अर्थात् सबसे अधिक व्यापक है। वह तो सभी भूतों को व्याप्त कर लेता है। शब्द आकाश के माध्यम से गति करता है। आकाश अनन्त है, इसलिए शब्द भी अनन्त है।
भाषा के ध्वनि रूप को अक्षर कहते हैं। अक्षर का अर्थ है जिसका कभी क्षरण नहीं होता। अक्षर ब्रह्म का भी नाम है। भाषा की लघुतम इकाई अक्षर है। अक्षर ध्वनि रूप है, इसलिए उसका उच्चारण होता है। उच्चारण होने के कारण उसका सम्बन्ध वाक् कर्मेन्द्रिय के साथ है। ध्वनि शब्द है, इसलिए उसका सम्बन्ध श्रवणेन्द्रिय के साथ है। श्रवणेन्द्रिय और वागीन्द्रिय दोनों से सम्बन्ध होने के फलस्वरूप सुनने और बोलने की प्रक्रिया होती है। इस प्रक्रिया से सुनने वाले और बोलने वाले का भी सम्बन्ध बनता है। यही संवाद का माध्यम है। इस प्रकार भाषा मनुष्य का मनुष्य के साथ सम्बन्ध स्थापित करने का एक सशक्त माध्यम है।
भाषा में वाणी नामक कर्मेन्द्रिय की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। शारीरिक दृष्टि से स्वर यंत्र का ठीक होना आवश्यक है। इसके साथ ही श्वसन सही पद्धति से लेना आवश्यक है। बैठने की सही पद्धति हो और छाती में दम हो, यह भी आवश्यक है। यदि छाती में दम नहीं है तो उच्चारण दमदार नहीं होता। यदि श्वसन ठीक नहीं है तो उच्चारण स्पष्ट नहीं होता। यदि स्वर यंत्र खराब है तो उच्चारण अशुद्ध होता है। इन सबमें अभ्यास का अत्यधिक महत्त्व है। अभ्यास से ही भाषा प्रभावी बनती है।
अक्षर का सम्बन्ध प्राण से है
ध्वनि रूप अक्षर का सम्बन्ध प्राण से है। मनुष्य के भीतर जो प्राण है और सृष्टि में जो प्राणतत्त्व है, दोनों के साथ ध्वनि का सम्बन्ध है। प्राण के बिना उच्चारण सम्भव ही नहीं है। इसलिए प्राणशक्ति के बलवान होने या कमजोर होने का परिणाम अक्षर के उच्चारण पर पड़ता है।
अक्षर का सम्बन्ध मन के साथ भी है। शरीर के भीतरी चक्रों के साथ भी है। इसी प्रकार विभिन्न अंगों के साथ भी है। मूल ध्वनि विभिन्न अंगों के साथ सम्बन्धित होकर भिन्न-भिन्न रूप धारण करती है। जैसे –
मूल ध्वनि कंठ से जुड़कर क, ख, ग, घ, ङ के रूप में, मूर्धा से जुड़कर च, छ, ज, झ, ञ के रूप में, तालू से जुड़कर ट, ठ, ड, ढ, ण के रूप में, दन्त से जुड़कर त, थ, द, ध, न के रूप में, ओष्ठ से जुड़कर प, फ, ब, भ, म के रूप में उच्चारित होती है।
ऐसे विभिन्न रूप धारण किए हुए अक्षर शरीर के भीतरी चक्रों में स्थान प्राप्त करते हैं। इन चक्रों का प्रभाव मनुष्य के संवेगों, संवेदनाओं, भावनाओं तथा क्रियाओं पर होता है। सार रूप में कहना हो तो अक्षर का सम्बन्ध मनुष्य के पूर्ण व्यक्तित्व के साथ बनता है। साथ ही साथ अक्षर मनुष्य का अन्य मनुष्य के साथ और सृष्टि के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है।
शेष अगले भाग में……
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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