ज्ञान की बात 38 (सृष्टिगत विकास)

 – वासुदेव प्रजापति

अब तक हमने व्यष्टि और समष्टि के सम्बन्धों को जाना, आज हम सृष्टि के साथ व्यक्ति के सम्बन्धों को जानने का प्रयत्न करेंगे। सृष्टि को समझने से पूर्व हम व्यक्ति जीवन के लिए सृष्टि का महत्त्व जानने वाले एक अवधूत की कथा का आनन्द लेंगे।

सृष्टि गुणों की खान है

ये अवधूत हैं गुरु दत्तात्रेय जी। दत्तात्रेय जी अत्रि ऋषि व अनसुया के पुत्र थे। बड़े तेजस्वी थे, योग विद्या में प्रवीण थे। एक बार ये अपनी ही मस्ती में कहीं जा रहे थे। एक राजा ने इन्हें एक मदमस्त हाथी की तरह जाते हुए देखा। राजा ने परमानन्द में लीन दत्तात्रेयजी से  पूछा, आपको ऐसी कौनसी वस्तु मिल गई है कि आप इतने आनन्दित रहते हैं, आपको यह आनन्द किस गुरु से मिला है?

राजा के इस प्रश्न को सुनकर दत्तात्रेयजी ने कहा, राजन! पुरुष का गुरु तो स्वयं आत्मा ही है, क्योंकि अपने आत्मज्ञान से ही वह कल्याण को प्राप्त होता है। आप मेरे गुरु को जानना चाहते हैं तो सुने, मैंने किसी एक पुरुष को अपना गुरु नहीं बनाया है। किसी एक पुरुष से कान में मंत्र दीक्षा नहीं ली, मैंने तो सम्पूर्ण सृष्टि को अपना गुरु माना है। इस सृष्टि में चाहे कीट-पतंग हो, चाहे पशु-पक्षी हो और चाहे ग्रह-नक्षत्र हो जिन-जिन में जो-जो गुण मुझे दिखाई दिया, उनके उन गुणों को मैंने ग्रहण किया है, इसलिए वे सभी मेरे गुरु हैं। राजा ने आश्चर्य से पूछा फिर आपके कितने गुरु हैं और उन गुरुओं से आपने क्या-क्या सीखा है? कृपा करके मुझे भी बताइए।

तब दत्तात्रेयजी ने बताया – हे राजन! मेरे चौबीस गुरु हैं, इन सभी गुरुओं से मैंने जो-जो सीखा है, उसे अब बतलाता हूँ। मेरा पहला गुरु है पृथ्वी, पृथ्वी से मैंने क्षमा एवं परोपकार का गुण सीखा। दूसरे हैं जल, जल से मैंने स्वच्छता व माधुर्य का गुण सीखा। तीसरे गुरु अग्नि, अग्नि से मैंने अपनी क्षमता से अधिक संग्रह न करने का गुण सीखा। चौथे हैं वायु, वायु से मैंने किसी में आसक्त न होने का गुण सीखा। मेरे पांचवे गुरु हैं आकाश, आकाश से मैंने व्यापक होने व सदा असंग रहने का गुण सीखा। छठे गुरु हैं चन्द्रमा, चन्द्रमा से मैंने आत्मा की पूर्णता का ज्ञान लिया। मेरे सातवें गुरु सूर्य हैं, सूर्य से मैंने त्याग करने का गुण सीखा। आठवें गुरु हैं कपोत, कबूतर से मैंने स्नेह का त्याग करना सीखा। मेरे नौवें गुरु हैं अजगर, अजगर से मैंने सन्तुष्ट रहने का गुण सीखा। दसवें गुरु हैं सिन्धु, समुद्र से मैंने मन को विचलित न होने देना का गुण सीखा।

मेरे ग्यारहवें गुरु हैं पतंगा, पतंगें से मैंने आसक्त न होने का गुण सीखा। बारहवें गुरु हैं भ्रमर, भौंरे से मैंने संसार में लिप्त न होने का गुण सीखा। मेरे तेरहवें गुरु हैं मधुमक्खी, मधुमक्खी से मैंने संग्रह न करने का गुण सीखा। मेरे चौदहवें गुरु हैं गज, हाथी से मैंने कामातुर न होने का गुण सीखा। मेरे पन्द्रहवें गुरु हैं मृग, हिरण से मैंने शब्दों से प्रभावित न होने का गुण सीखा। सोलहवें गुरु हैं मीन, मछली से मैंने स्वाद का त्याग करने का गुण सीखा। सत्रहवें गुरु हैं पिंगला, एक वैश्या से मैंने भोगों में सुख न मानने का गुण सीखा। अठारहवें गुरु हैं कुरर पक्षी, कुरर पक्षी से मैंने भोगों का त्याग करने की शिक्षा ली। मेरे उन्नीसवें गुरु हैं बालक, एक शिशु से मैंने चिन्ता रहित होने का गुण सीखा। बीसवें गुरु हैं कुमारी, एक कन्या से मैंने अकेले रहने का गुण सीखा। मेरे इक्कीसवें गुरु हैं सर्प, सांप से मैंने घर न बनाने का गुण सीखा। बाईसवें गुरु हैं शरकृत (बात बनाने वाला), तीर बनाने वाले से मैंने एकाग्रता का गुण सीखा। तेईसवें गुरु हैं मकड़ी, मकड़ी से मैंने इस दुनिया के मायाजाल में न फॅंसने का गुण सीखा। और मेरे चौबीसवें गुरु हैं भृंगी, भृंगी से मैंने शरीर के मोह को त्यागकर आत्मरूप में स्थित होना सीखा।

दत्तात्रेयजी ने राजा को समझाते हुए कहा – देखो राजन! इन चौबीस गुरुओं ने मुझे परमार्थ का बोध करवाया है। परमार्थ बोध होने से मैं आत्मा में स्थित होकर जीवन मुक्त हुआ हूँ और जीवन मुक्त होकर अब मैं परमानन्द में स्थित हूँ। दत्तात्रेय जी के इन वचनों को सुनकर वह राजा भी उनके मार्ग पर चला और जीवन मुक्त हुआ।

यह सृष्टि परमात्मा का व्यक्तरूप है

हमारे ग्रंथों में यह उल्लेख मिलता है कि इस सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व अकेले अव्यक्त परमात्मा ही थे। उन परमात्मा को अकेले रहना अच्छा नहीं लगता था, उन्होंने एक से अनेक होने की कामना की। और कामना पूर्ति हेतु उन्होंने तप किया, अपने तपोबल से उन्होंने इस सृष्टि की रचना की। अर्थात् जो परमात्मा अब तक अव्यक्त था, वही अब सृष्टि के रूप में व्यक्त हुआ। इसलिए यह सृष्टि उस अव्यक्त परमात्मा का ही व्यक्त रूप है।

परमात्मा की इस सृष्टि में मनुष्य अकेला नहीं है, मनुष्य के साथ-साथ अन्य भी बहुत कुछ है। सूर्य-चन्द्र हैं, पंचमहाभूत (पृथ्वी,जल, तेज, वायु, आकाश) हैं, ग्रह-नक्षत्र हैं, नदी-पर्वत व समुद्र हैं तो कीट-पतंग, पशु-पक्षी, वृक्ष-वनस्पति के साथ-साथ मनुष्य भी हैं। अर्थात् मनुष्य इस सृष्टि का ही एक अंश है। इस सृष्टि के साथ एकात्मता का अनुभव करना ही सृष्टिगत विकास है।

सृष्टि के साथ एकात्म होना

हमारे देश में अनेक महापुरुषों ने इस सृष्टि के साथ एकात्मता की अनुभूति की है। रामकृष्ण परमहंस कुटिया में बैठे-बैठे मैदान में खड़ी घास के साथ एकात्म हो गए। उधर गाय आकर घास चलने लगी, इधर रामकृष्ण की पीठ पर गाय के खुर के चिह्न प्रकट हो गए और घास की वेदना उनके मुख से चीख के रूप में निकल पड़ी। संत एकनाथ कुत्ते के पीछे घी का पात्र लेकर भागते हैं। संत ज्ञानेश्वर दीवार को आदेश देते हैं और दीवार चल पड़ती है।

इस एकात्मता की अनुभूति के आधार पर हमारा लोक व्यवहार चलता है। रात में पेड़-पौधों को नहीं छूना, गाय-कुत्ते को रोटी खिलाना, चींटियों को शक्कर खिलाना, मछलियों को आटा डालने जैसे सभी काम करना, एकात्मकता के ही उदाहरण हैं। तुलसी-पीपल आदि वृक्षों को, अन्न व जल को पवित्र मानना और उनकी पूजा करना तथा पंचमहाभूतों को देवता मानना, जैसे- जल देवता, अग्नि देवता आदि मानकर उनके साथ सम्बन्ध स्थापित करना सृष्टि के साथ एकात्म भाव के जागरण का ही परिचायक है।

सृष्टिगत विकास के आयाम

एक महत्त्वपूर्ण बात ध्यान में आई होगी कि समष्टि में केवल मानव समुदाय आता है जबकि सृष्टि में जड़-चेतन सबकुछ आता है। जड़-चेतन में उसी एक परमात्मा तत्त्व की अनुभूति होना ही सृष्टिगत विकास है। इस सृष्टिगत विकास के आयाम अधोलिखित हैं।

सृष्टि के साथ आत्मीयता का व्यवहार करना

इस सृष्टि में जड़-चेतन दोनों हैं और दोनों की अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता है। इन दोनों के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करना, उनका सम्मान करना और उनके साथ समान व्यवहार करना। पाश्चात्य दृष्टि में मनुष्य को भी एक संसाधन मानकर, एक वस्तु या पदार्थ मानकर उसके साथ व्यवहार किया जाता है, जबकि भारतीय दृष्टि में जड पदार्थ को भी परमात्मा का अंश मानकर उसके साथ आत्मीयता का व्यवहार किया जाता है।

प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव रखना

सृष्टि को हम प्रकृति भी कहते हैं। मनुष्य इस प्रकृति का ही एक अंग है। पंचमहाभूत, वृक्ष-वनस्पति, पशु-पक्षी तथा अन्य प्राणी आदि पर मनुष्य का जीवन निर्भर है। इन सबके मनुष्य के ऊपर अनेक उपकार हैं। उन उपकारों का स्मरण कर प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव रखना चाहिए।

प्रकृति का शोषण नहीं करना

प्रकृति हमारे लिए कामधेनु गाय के समान है। यह मनुष्य की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करती है, किन्तु मनुष्य स्वार्थ और लालसा से प्रेरित होकर प्रकृति के संसाधनों का आवश्यकता से भी अधिक मात्रा में अन्धाधुंध उपभोग करने लगा है। पाश्चात्य दृष्टि से प्रेरित होकर मनुष्य प्रकृति पर अमर्यादित अत्याचार कर रहा है। परिणाम स्वरूप प्रकृति का विनाश हो रहा है। इसे हम प्रकृति का शोषण करना कहते हैं। इस प्रकार मनुष्य ने प्रकृति का शोषण कर स्वयं के नाश का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। भारतीय दृष्टि प्रकृति का शोषण नहीं दोहन करने की अनुमति देती है। प्रकृति से उतना ही लेना चाहिए, जितना आवश्यक है। प्रकृति से इतना लेना, जिससे उसकी नव सृजन की प्रक्रिया बन्द न हो। इसे भी प्रकृति का दोहन करना कहते हैं। अतः प्रकृति के शोषण को रोकना चाहिए।

प्रकृति का रक्षण व पोषण करना

इस प्रकृति में मनुष्य अन्यों की तुलना में श्रेष्ठ है, बलवान है और सामर्थ्यवान है। इस सामर्थ्य के बलबूते पर ही वह प्रकृति का विनाश कर रहा है। भारतीय मनीषा इस सामर्थ्य का विधायक उपयोग करते हुए प्रकृति का रक्षण व पोषण करने पर बल देती है। जब हम प्रकृति की सेवा करेंगे तभी प्रकृति हमें उत्तम पदार्थ व वस्तुएँ प्रदान करेंगी। मनुष्य और प्रकृति के परस्पर प्रेम, कृतज्ञता और सेवा से ही प्रकृति जन्म सभी पदार्थों में रस, माधुर्य, प्रचूरता और पोषकता आती है और उनके उपभोग से मनुष्य को पुष्टि-संतुष्टि व आनन्द मिलता है।

मनुष्य और प्रकृति के इस मधुर सम्बन्ध से अनेक समस्याएँ दूर हो जाती हैं अथवा पैदा ही नहीं होती। जैसे- जगत में होने वाला हिंसाचार, पर्यावरण प्रदूषण एवं धर्म या राष्ट्र के नाम पर शत्रुता या गरीब राष्ट्रों का शोषण आदि संकट पैदा ही नहीं होंगे। इसलिए समष्टि व सृष्टि का परस्पर पूरक होकर रहने में ही सम्पूर्ण जगत का कल्याण निहित है।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

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