– वासुदेव प्रजापति
भारत में दी जाने वाली शिक्षा भारतीय नहीं है। यह शिक्षा विद्यार्थी को जीवन के लिए नहीं अपितु नौकरी के लिए तैयार करती है। इस शिक्षा में भारतीय संस्कृति, भारत राष्ट्र एवं समाज को कोई स्थान नहीं है। भारतीय जीवन रस से विहीन शिक्षा को हम भारतीय शिक्षा नहीं कह सकते। अतः आज हम भारतीय शिक्षा के प्रयोजनों को जानेंगे।
भारतीय शिक्षा के प्रयोजन जानने से पूर्व सत्यपालन के इस संस्मरण को हृदयंगम करें –
झूठी शपथ कैसे लूँ !
यह संस्मरण हमारे देश की स्वाधीनता से पूर्व का है। अर्थात् आज से मात्र चौहत्तर वर्ष पहले का है, जिसमें सत्यपालन का आदर्श रखा गया। सत्य का पालन करने वाले थे मेरठ जिले के एक कांग्रेस कार्यकर्ता, श्रीमान लक्ष्मीनारायण जी अग्रवाल। स्वाधीनता आन्दोलन में उनकी सक्रिय सहभागिता के परिणामस्वरूप उन्हें संयुक्त प्रांत (उत्तरप्रदेश) की असेम्बली का सदस्य मनोनीत किया गया और उन्हें शपथ लेने के लिए लखनऊ बुलाया।
उन दिनों मनोनीत सदस्य को शपथ में – मैं ब्रिटिश ताज के प्रति वफादारी की शपथ लेता हूँ, यह वाक्य बोलना पड़ता था। बाबूजी से कहा गया कल आपको शपथ लेनी है, आप इस शपथ-पत्र को याद कर लें। उन्होंने वह शपथ-पत्र पढ़ा, तब उन्हें पता चला कि मुझे शपथ ग्रहण करते समय अमुक वाक्य बोलना होगा। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में बताया कि मैंने पहले ही महात्मा गांधी के नेतृत्व में ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने की शपथ ली हुई है। इस शपथ को पूरा करने के लिए ही मैं सत्याग्रह कर जेल जा चुका हूँ। अब ब्रिटिश सत्ता की वफादारी की शपथ लेकर अपना दोगलापन कैसे प्रकट कर सकता हूँ?
कांग्रेस की अन्तरिम सरकार के एक मंत्री ने समझाते हुए कहा- बाबूजी! इस प्रकार की शपथ तो हम सबने भी ले रखी है। बाबूजी ने कहा- आपने ली होगी, मैं तो भगवान श्रीराम का अनुयायी हूँ, वे सदैव सत्य का आचरण करते थे। मैं पहले ही सत्याचरण की शपथ लिए हुए हूँ, अब उसके बिल्कुल विपरीत अर्थात् झूठी शपथ कैसे ले सकता हूँ?
बाबूजी को मिले संस्कार उनके सत्य आचरण पर दृढ़ रहने में सहायक सिद्ध हुए। उन्होंने झूठी शपथ नहीं ली और राजनीति त्याग दी। राजनीति छोड़कर वे हापुड़ आ गए और शिक्षा रूपी सेवा कार्य में लग गए। आज राजनीति में सिद्धांत प्रियता का स्थान सिद्धांत हीनता और अवसर वादिता ने ले लिया है। बाबूजी भी चाहते तो अवसर का लाभ उठा सकते थे, परन्तु उन्होंने अपने जीवन में अवसरवादी बनने के स्थान पर सत्य के मार्ग पर चलने का आदर्श प्रस्तुत किया।
सृष्टि के मूल तत्त्व : सत्य व धर्म
इस सृष्टि की धारणा करने वाले मूल तत्त्व – सत्य और धर्म हैं। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही धर्म की उत्पत्ति हुई है। धर्म विश्वनियम है। वर्तमान सृष्टि के प्रलय के बाद नई सृष्टि के सृजन के जो बीज बचे रहते हैं, उनमें धर्म के बीज भी बचे रहते हैं। ऐसे मूलभूत तत्त्व धर्म को जानना, समझना और अपनाना मनुष्य का कर्तव्य है।
सत्य धर्म की वाचिक अभिव्यक्ति है। सत्य धर्म बोलता है और धर्म सत्य की प्रतिष्ठा करता है। जो धर्म नहीं बोलता वह सत्य नहीं और जो सत्य में प्रतिष्ठित नहीं होता वह धर्म नहीं। सत्य केवल मनुष्य के लिए है, जबकि धर्म सम्पूर्ण सृष्टि के लिए है। मनुष्य और सृष्टि में अन्तर है, सृष्टि धर्म का अनुसरण स्वभाव से ही करती है, जबकि मनुष्य को धर्म व धर्म का पालन करना सीखना पड़ता है। सृष्टि की भांति मनुष्य स्वभाव से ही धर्म का पालन नहीं करता।
सत्य बोलना वाणी का विषय है। इस सृष्टि में वाणी का प्रयोग केवल मनुष्य ही कर सकता है। इसलिए सत्य केवल मनुष्य के लिए ही है। मनुष्य अपने मन, बुद्धि और अंहकार से प्रेरित होकर वह असत्य भी बोलता है और अधर्म का आचरण भी करता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य जब सत्य बोलता है और धर्म का पालन करता है, तब वह अन्यों की तुलना में श्रेष्ठ बन जाता है। अतः मनुष्य के लिए सत्य और धर्म दोनों ही तत्त्व महत्त्वपूर्ण तथा अनिवार्य है।
धर्म-अधर्म व सत्य-असत्य में संघर्ष
ऐसा कहा जाता है कि सत्ययुग में तो मनुष्य स्वाभाविक रूप से धर्माचरण व सत्यभाषण करता था। त्रेतायुग में मनुष्य की धर्माचरण वह सत्यभाषण की शक्ति क्षीण होने लगी, तब राज्य का उदय हुआ। राज्य के साथ ही धर्म व अधर्म का और सत्य व असत्य का व्यवहार शुरू हुआ। अहंकार जनित बल व दर्प तथा मन के लोभ व मोह जैसे भावों तथा संग्रह, चोरी, छल-कपट आदि में बुद्धि का उपयोग होने लगा, उसमें से जन्मा संघर्ष। ऐसे समय में वेद धर्म व सत्य की प्रतिष्ठा करते थे।
वेद के द्रष्टा और ज्ञाता सत्य व धर्म को जानने वाले थे, किन्तु वेदों के ज्ञाता भी अधर्म में प्रवृत्त हुए। त्रेतायुग का कुख्यात चरित्र रावण इसी बात को सिद्ध करता है। रावण स्वयं वेदों का ज्ञाता था। परन्तु अंहकार के कारण उसे अपने बल तथा स्वर्ण पर अधिक गर्व था। रावण ज्ञानी होने के साथ-साथ भक्त भी था। अपनी भक्ति और तपश्चर्या से उसने भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया था, और वरदान लेने में सफल भी हुआ था। परन्तु उसके जीवन में बल और स्वर्ण का प्रभाव धर्म व सत्य सेअधिक था। इसलिए रावण का धर्म और सत्य के साथ संघर्ष शुरू हुआ। तब से लेकर आज तक धर्म-अधर्म तथा सत्य-असत्य का संघर्ष चल ही रहा है।
धर्म का तत्त्व जानना दुष्कर है
मनुष्य सत्य व धर्म को जानता तो है, परन्तु उसे इनका भान नहीं है। सत्य व धर्म का भान ही ज्ञान है। इन बातों पर अज्ञान का आवरण छाया होने के कारण वह असत्य और अधर्म का आचरण करता है। कभी-कभी तो वह मन की दुर्बलता के कारण अनुचित व्यवहार करता है। सत्य व धर्म का आचरण करना उसके लिए इतना सहज नहीं होता। धर्म के तत्त्व को जानना कितना दुष्कर है? समझने के लिए इस सुभाषित को समझें =
तर्कों प्रतिष्ठ स्मृतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणं।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनों येन गत: स पंथा।।
इस सुभाषित का भावार्थ यह है कि तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है, तर्क कुछ भी सिद्ध कर सकता है। स्मृतियाँ भिन्न-भिन्न बातें बतलाती हैं। सारे मुनि ऐसी बातें करते हैं, जिन्हें प्रमाण मानने को मन नहीं करता। धर्म का तत्त्व ऐसी गुफा में छिपा हुआ है कि उसे ढूंढना कठिन है। अतः हमारे लिए उसी मार्ग पर चलना श्रेयस्कर है, जिस मार्ग पर महापुरुष चलते हैं।
अर्थात् सामान्य व्यक्ति के लिए धर्म के तत्त्व को जानना दुष्कर है। इसलिए भलाई इसी में है कि वह महापुरुषों के दिखाए मार्ग पर चले। परन्तु समस्या यह है कि महाजन किसे मानना? यह विवेक सामान्य व्यक्ति के पास नहीं है। यह विवेक भी धर्म ही सिखाता है। अतः सामान्य जन हो या विशेष जन उसे धर्म तो सीखना ही चाहिए।
व्यावहारिक सत्य जानना कठिन है
सत्य और धर्म सीखने के लिए मनुष्य का हृदय प्रेम से भरा हुआ चाहिए। यदि हृदय में प्रेम नहीं है तो वह दया, करुणा और मैत्री का व्यवहार नहीं कर सकता। जिसके हृदय में सद्भाव नहीं, उसका हृदय कठोर हो जाता है। कठोर हृदयी व्यक्ति को आनन्द नहीं मिलता, उसे जीवन में रस भी नहीं आता। इसलिए सत्य जानने से पहले हृदय की शिक्षा और विवेक होना चाहिए।
सत्य बुद्धि का विषय है। तात्त्विक सत्य और व्यावहारिक सत्य दोनों को जानना आवश्यक है। तात्त्विक सत्य को जानना तो फिर भी सरल है, परन्तु व्यावहारिक सत्य को जानना कठिन है। जैसे- स्वर्ण और मिट्टी दोनों तात्त्विक दृष्टि से पृथ्वी महाभूत है, यह जानना तो सरल है। परन्तु स्वर्ण के आभूषण बनते हैं जबकि मिट्टी के घड़े बनते हैं, यह जानने के लिए व्यावहारिक विवेक चाहिए। इस जगत के व्यवहार इतने जटिल होते हैं कि उस परिस्थिति में सत्य-असत्य और धर्म-अधर्म का निर्णय करना कठिन होता है। ऐसे कठिन सत्य व धर्म को जानना हम सबके लिए आवश्यक है।
शिक्षा सत्य व धर्म सिखाती है
शिक्षा धर्म सिखाती है और सत्य की पहचान करवाती है। शिक्षा हृदय, मन, बुद्धि को सत्य व धर्म के आचरण हेतु सक्षम बनाती है। भारतीय शिक्षा का यह प्रथम दायित्व है। वर्तमान में परिस्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है, परन्तु विपरीत परिस्थिति होने से शिक्षा का प्रथम दायित्व बदल नहीं जाता।
सत्य और धर्म की शिक्षा को आज मूल्य शिक्षा कहा जाने लगा है। कुछ विद्वान इसे नैतिक व आध्यात्मिक शिक्षा भी कहते हैं। परन्तु इस शिक्षा पर बहुत कम बल दिया जाता है। धर्म को विवाद का विषय बना दिया गया है और सत्य को कानून का विषय बना दिया है। कानून यांत्रिक है, वह सत्य को समझने में अक्षम है। इस विपरीत परिस्थिति में सत्य और धर्म की शिक्षा के लिए विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता है। जब सत्य और धर्म की शिक्षा दी जाने लगेगी, तभी शिक्षा सही अर्थ में भारतीय शिक्षा बन पायेगी।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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