– वासुदेव प्रजापति
संस्कृत शब्द करण से हम भली-भाँति परिचित हैं। करण के आगे उप उपसर्ग लगने से उपकरण शब्द बनता है। करण का अर्थ मुख्य साधन और उपकरण का अर्थ हुआ सहायक साधन। कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार एवं चित्त ये मुख्य साधन हैं। जबकि पैन- पेन्सिल, रबर जैसी लेखन सामग्री एवं पुस्तकें, मानचित्र, केल्कुलेटर, कम्प्यूटर तथा मोबाइल जैसी अन्य सारी पठन सामग्री उपकरण है। आज की हमारी शिक्षा करणों के स्थान पर उपकरणों पर केन्द्रित है। अत: करण एवं उपकरण का विवेक करना, यह प्रथम आवश्यकता है।
वास्तविकता यह है कि करण हमें जन्म के साथ ही मिले हुए हैं, इन्हें खरीदना नहीं पड़ता। किन्तु उपकरण खरीदने पड़ते हैं, उनका उपयोग करना सीखना पड़ता है, जिसमें बहुत सारा समय, श्रम व पैसा खर्च करना पड़ता है। इसलिए करण आधारित शिक्षा सुलभ है, जिसमें कुछ भी खर्चा नहीं है; गरीब से गरीब विद्यार्थी भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है। जबकि उपकरण आधारित शिक्षा जटिल एवं खर्चिली होने से गरीब बालक ऐसी शिक्षा से वंचित रह जाता है। इसलिए भारत में शिक्षा सदैव करण आधारित रही है।
उपकरण यदि न हो तब भी चल सकता है, परन्तु करण न हो तो नहीं चल सकता। जैसे बिना ऐनक के चल सकता है, परन्तु बिना आँख के नहीं चल सकता। यदि आँख ही नहीं है तो ऐनक कुछ भी देख नहीं सकता। ठीक वैसे ही करण नहीं है तो उपकरण कुछ भी नहीं कर सकता। करण के बिना उपकरण का कोई उपयोग नहीं है। क्योंकि उपकरण मुख्य साधन नहीं है, वे केवल सहायक साधन हैं।
उपकरणों की आवश्यकता कब पड़ती है? जब करण कमजोर होते हैं। जैसे – जब आँख से कम दिखाई देता है, तब ऐनक की सहायता लेते हैं। जब मौखिक योग करना, घटाना या गुणा-भाग करना नहीं आता तब केल्कुलेटर की आवश्यकता पड़ती है। जब स्वयं गा नहीं सकते, तब सीडी चाहिए। अर्थात् करण निर्बल होने पर ही उपकरण सहायक बन सकते हैं। इसके विपरीत करण सबल हैं तो उपकरण नहीं चाहिए। इसलिए हमारी गुरुकुल शिक्षा में करणों को सबल बनाने पर बल दिया जाता था।
जिनकी स्मृति बहुत तेज है, ग्रहण शीलता व समझ बहुत अच्छी है, उन्हें उपकरण नहीं चाहिए। किन्तु जब हम करणों की उपेक्षा कर उपकरणों पर ही निर्भर हो जाते हैं, तब हमारे करणों की क्षमता घटती जाती है। उदाहरण के लिए मोबाइल आने से पहले हमें अपने रिश्तेदारों तथा मित्रों के सैकड़ों फोन नम्बर याद थे। मोबाइल आते ही हम वे सारे नम्बर भूल गये, यहाँ तक कि अपना स्वयं का नम्बर भी भूल गये। क्यों? क्योंकि अब याद रखने की जरूरत नहीं, मोबाइल में सेव है। जो पहले चित्त में सेव रहता था, वह अब मोबाइल में सेव रहता है। इसलिए चित्त का उपयोग बन्द हो गया। परिणाम स्वरूप बुद्धि व चित्त की क्षमता कम हो गई।
इसका अर्थ यह भी नहीं है कि उपकरण सदैव हेय हैं या निरुपयोगी हैं। उपकरण अमूर्त या कठिन संकल्पना को समझाने में उपयोगी भी हैं। जैसे – उपकरणों के माध्यम से प्रयोग कर विज्ञान के सिद्धान्तों को अच्छी प्रकार समझा जाता है। दिशासूचक यंत्र की सहायता से दिशाओं का सम्यक् ज्ञान होता है। मानचित्रों की सहायता से विश्व की भौगोलिक स्थिति अच्छी तरह समझ में आती है। आज के अत्याधुनिक यंत्रों से शरीर की आन्तरिक रचना को भली-भाँति देखा व समझा जाता है।
अत: यह कहा जा सकता है कि भौतिक क्षेत्र में उपकरण उपयोगी हैं। किन्तु करणों को भूलकर उपकरणों पर पूर्णतया निर्भर रहना हितकर नहीं है। विवेकवान व्यक्ति का मत तो यही होगा कि करणों का विकास नितान्त आवश्यक है। अविकसित करण वाले उपकरणों का सही उपयोग नहीं कर पाते। पूर्ण विकसित करणों से ही उपकरणों का सही व पूर्ण उपयोग लिया जा सकता है। उपकरणों का उपयोग कहाँ उचित है और कहाँ अनुचित है, यह विवेक रखने वाली बुद्धि का होना तो आवश्यक है। “अन्यथा बन्दर के हाथ में उस्तरा देना” वाली कहावत चरितार्थ होती है।
आओ! हम यंत्रों के सहारे ज्ञानवान समाज बनाने वाले प्रसंग को समझने का प्रयत्न करें।
यांत्रिक प्रकिया और एक्सपर्ट
यह प्रसंग पाश्चात्य वैज्ञानिक फ्यूडर रोजेक की पुस्तक “Whair the best land ends” से लिया गया है।
इसमें रोजेक लिखता है कि मैंने एक पाश्चात्य शिक्षाविद से पूछा – आज की इस यांत्रिक शिक्षा से वर्तमान सभ्यता क्या चाहती है? उसने बताया – आज की सभ्यता Super industrial highly scientific culture है, वह Expert (कुशल व्यक्ति) बनाना चाहती है। कैसा एक्सपर्ट? तो वह कहता है – Techno political economic social expert बनाना चाहती है। ऐसे एक्सपर्ट किन साधनों से बनेंगे? तब उसने बताया- closed circuit TVs, CDs and Power point presentation equipment से बनेंगे।
ऐसा एक्सपर्ट बनाने के लिए शिक्षक को कक्षा में जो उपकरण थमाये हैं, वे क्या-क्या हैं? तब उसने उत्तर दिया – Highly electronized individualized audio visual उपकरण दिये हैं। रोजर आगे लिखता है कि इतने सारे अत्याधुनिक उपकरणों को देने के बाद भी परिणाम क्या निकला? एक्सपर्ट तो नहीं बन पाये। आखिर कारण क्या रहा? तब रोजेक बताता है कि हम इस मूल बात को भूल गये कि मानव एक जीवमान सत्ता (Living entity) है। इस जीवमान सत्ता में पूर्णत्व (Perfection) लाना है तो उसे ऊँचा उठाने के लिए, उसमें परिवर्तन लाने के लिए जड़ उपकरण नहीं चाहिए, अपितु शिक्षक रूपी एक जीवमान सत्ता ही चाहिए। उसके जीवन में वह सबकुछ होना चाहिए, जो वह अपने विद्यार्थी को देना चाहता है। ऐसे शिक्षक के स्पर्श से, उसके आचरण से, उसके चरित्र से जो संक्रमित (Percolate) होता है, उसे वह विद्यार्थी ग्रहण करता है।
इस मूलतत्त्व की उपेक्षा करके एक जीवमान सत्ता को जब यांत्रिक प्रक्रिया (Mechanical process) से परिपूर्ण तथा परिष्कृत (Perfect and purify) करने का प्रयत्न किया जाता है, तब शून्यावकाश (Vacuum) बनता है।
इसलिए हमें उपकरण आधारित शिक्षा के स्थान पर फिर से करण आधारित शिक्षा को लाना होगा। उपकरण आधारित शिक्षा से पढ़े-लिखे बेरोजगारों की फोज तो आज भी निर्माण हो ही रही है। हमें कक्षा-कक्षों में चरित्रवान राष्ट्रभक्तों का निर्माण करना है तो करण आधारित शिक्षा को लाना ही पड़ेगा।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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