✍ प्रशांत पोळ
एक प्रश्न मैं कई बार अलग अलग मंचों से पूछता हूँ, और दुर्भाग्य से लगभग नब्बे प्रतिशत इसका उत्तर नहीं मिलता है, या फिर गलत मिलता है। प्रश्न है – ऐसा कौनसा देश है, जिसके राष्ट्रध्वज पर हिन्दू मंदिर है?
‘विश्व का सबसे बड़ा पूजा स्थल कौनसा है’? ऐसा प्रश्न किया, कि उत्तर आते हैं – वेटिकन सिटी का चर्च या बेसिलिका, स्पेन का चर्च, मक्का या फिर मस्कत की नई मस्जिद आदि। ये सारे उत्तर गलत हैं। विश्व का सबसे बड़ा पूजा स्थल या प्रार्थना स्थल यह एक हिन्दू मंदिर है। और मजे की बात, यह हिन्दू मंदिर भारत में नहीं है। भारत के बाहर है।
कंबोडिया की उत्तर-पश्चिम सीमा पर ‘अंगकोर वाट’ मंदिर, इन दोनों प्रश्नों का उत्तर है। यह विश्व का सबसे बड़ा पूजा स्थल है। दक्षिण-पूर्व एशिया में ‘वाट’ का अर्थ होता है – मंदिर। अंगकोर वाट मंदिर की एक दीवार लगभग साढ़े तीन किलोमीटर लंबी है। इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि यह मंदिर कितने विशाल भूभाग पर फैला होगा। मेरु पर्वत की प्रतिकृति के रूप में यह मंदिर बनाया गया है। इस मंदिर का कुल परिसर चार सौ वर्ग मीटर है।
इस हिन्दू मंदिर को कंबोडिया ने अपने राष्ट्रध्वज पर स्थान दिया है। इसी से मंदिर के महत्व का पता चलता है। इस मंदिर पर अपना हक जताने के लिए कुछ वर्ष पहले कंबोडिया और थायलैंड में घमासान युद्ध छिड़ने की नौबत आई थी। दोनों देशों की सेनाएं अपनी-अपनी सीमा पर खड़ी हो गई थीं। किन्तु यह मंदिर ‘युनेस्को’ की ‘विश्व विरासत’ (World Heritage Site) की सूची में है। इसलिए युनेस्को तथा विश्व के अन्य बड़े देशों ने बीच-बचाव किया, और युद्ध टला।
विश्व पर्यटन की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थान है। प्रतिवर्ष 26 लाख से भी ज्यादा पर्यटक, इस मंदिर को देखने के लिए, दुनिया के कोने कोने से आते हैं। अर्थात् सात हजार से भी ज्यादा पर्यटक प्रतिदिन। सन् 1100 के प्रारंभ से इस मंदिर के निर्माण का कार्य प्रारंभ हुआ और बारहवीं शताब्दी के मध्य में यह निर्माण कार्य पूर्ण हुआ। उस समय यह प्रदेश ‘कंबोज प्रांत’ के नाम से जाना जाता था। अंगकोर का पुराना नाम ‘यशोधरपुर’ था। लेकिन, इन विशाल मंदिरों के कारण यह ‘अंगकोर’ कहलाने लगा। जावा, सुमात्रा, मलय, सुवर्णद्वीप, सिंहपुर… इस पूरे क्षेत्र पर हिन्दू संस्कृति का प्रभाव था। कंबोज के तत्कालीन राजा सूर्यवर्मा (द्वितीय) ने इस विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया।
मूलतः यह मात्र एक मंदिर नहीं, अपितु मंदिरों का समूह है। संस्कृत में अंगकोर का अर्थ होता है – ‘मंदिरों की नगरी’। इस नगरी की रचना अत्यंत वैज्ञानिक पद्धति से की गई है। मंदिरों का यह परिसर चौकोनाकार खंदकों के कारण सुरक्षित है। इस खंदक पर एक पुल है, जिसे पार करके मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं। प्रवेशद्वार अत्यंत भव्य – दिव्य आकार में है। इसकी चौड़ाई ही एक हजार फीट की है। मंदिर की दीवारों पर रामायण के प्रसंग उकेरे गए हैं। समुद्र मंथन का अद्भुत दृश्य अनेक मूर्तियों के माध्यम से साकार हुआ है।
संपूर्ण मंदिर परिसर की रचना और मंदिर का स्थापत्य (architecture) शास्त्र देखकर हम दंग रह जाते हैं। साधारण 900 से 1000 वर्ष पूर्व, इतना सटीक और निर्दोष निर्माण करना, उस समय के हिन्दू स्थापत्यकारों को कैसे संभव हुआ होगा? इस मंदिर की केंद्रीय संरचना देखते हुए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ करने के पहले, इस मंदिर परिसर के नक्शे बनाए गए होंगे। उसमें समरुपता (सिमेट्री) का ध्यान रखा गया होगा। उसके बाद ही निर्माण कार्य का प्रारंभ किया होगा।
इजिप्त और मेक्सिको के स्टेप पिरामिड जैसे ही ये मंदिर भी सीढ़ियों से ऊपर उठाते बनाए गए हैं। इन मंदिरों के निर्माण कार्य पर पूर्णतः चोल और गुप्त कालीन स्थापत्य शास्त्र का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। विशेष रूप से रामायण कालीन प्रसंग जिस नजाकत से दिखाए गए हैं, उनको देखकर मन आश्चर्य से दंग रह जाता है।
दुर्भाग्य से, जिस देश के राष्ट्रध्वज में विश्व का सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर है, उस देश से भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक संबंध किस प्रकार के हैं? बिलकुल न के बराबर। कंबोडिया का यह अंगकोर वाट मंदिर देखने के लिए विश्व के हर कोने से पर्यटक आते हैं। किन्तु उनमें भारतीय पर्यटकों की संख्या बहुत कम होती है। स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थी को फ्रांस, जर्मनी, इटली, इंग्लैंड आदि देशों की राजधानियों की जानकारी तो होती है, अमेरिका के विभिन्न राज्यों की राजधानियां भी उसे मालूम होती हैं। लेकिन कंबोडिया की राजधानी, सौ में से नब्बे विद्यार्थियों के जानकारी में नहीं होती।
मूलभूत प्रश्न यह है कि भारतीय (या उस समय के अनुसार हिन्दू) स्थापत्यशास्त्र का यह कमाल, जो भारत के बाहर दिखाई देता है, वह कितना पुराना है? स्थापत्यशास्त्र में हम भारतीय कितने समय से प्रगत थे? भारत के अनेक मंदिर, विदेशी, खास कर मुस्लिम आक्रांताओं ने नष्ट किए। इस कारण दो-तीन हजार वर्ष पूर्व की स्थापत्य कला के नमूने, आज मिलना और दिखना दुर्लभ है। लेकिन उस कला के अंश कहीं न कहीं आगे की पीढ़ी में आए हैं। इसलिए हजार-डेढ़ हजार वर्ष पूर्व के निर्मित मंदिरों में भी वही स्थापत्य कला के अद्भुत चमत्कार दिखाई देते हैं।
दक्षिण भारत का विजय नगर साम्राज्य, पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में एक मजबूत और शक्तिशाली साम्राज्य था। कर्नाटक में स्थित ‘हम्पी’ यह इसकी राजधानी थी। इस साम्राज्य को तीन मुस्लिम पातशाहियों ने मिलकर परास्त किया। उस के बाद, तीनों ने मिलकर इस समृद्ध हिन्दू साम्राज्य को जी भरकर लूटा। अनेक मंदिरों को तोड़ा-फोड़ा और नष्ट किया। लेकिन आज भी जो खंडहर बचे हैं, उनसे उस समय की स्थापत्य कला के अद्भुत नमूने, उस समय की अति प्रगत स्थापत्य कला, हमें देखने को मिलती है। हम्पी के एक मंदिर के प्रत्येक खंभे से संगीत के सा रे ग म प… ऐसे अलग-अलग सप्त सुर निकलते हैं। यह कैसे किया होगा, इसकी जानकारी कहीं भी नहीं मिलती है। अगर कहीं लिखकर भी रखा होगा, तो वह सब साहित्य आक्रांताओं ने नष्ट किया होगा। अंग्रेजों ने इस स्थापत्य के चमत्कार का रहस्य ढूँढने के लिए उस संगीतमय सुरों के एक खंभे को काटा अर्थात् उसका ‘क्रॉस सेक्शन’ लिया। लेकिन वह खंभा अंदर से पूरा ठोस निकला। अब ऐसे ठोस, एक जैसे दिखने वाले खंभों से अलग-अलग सुर कैसे निकलते होंगे? अंग्रेज़ भी आश्चर्यचकित हो गए। पूरे विश्व में, भारत को छोड़, अन्यत्र कहीं भी इस प्रकार की स्थापत्य कला देखने को नहीं मिलती है।
मंदिरों की स्थापत्य कला और उसमें समाविष्टित विज्ञान के विषय में अनेक लेखकों ने लिखा है। मराठी में इस विषय के विशेषज्ञ, डॉ. गो.बं. देगलूरकर ने चार पुस्तकें लिखी हैं, जो लोकप्रिय हैं। पुणे के मोरेश्वर कुंटे और उनकी पत्नी विजया कुंटे ने स्कूटर पर महाराष्ट्र का भ्रमण करते हुए पूरे महाराष्ट्र के अनेक उपेक्षित मंदिरों की ‘स्थापत्य कला और वैज्ञानिक अधिष्ठान’ इस विषय पर शोध कार्य किया है।
ग्रीनविच यह पृथ्वी की मध्य रेखा है, ऐसा अंग्रेजों द्वारा तय करने के अनेक वर्ष पूर्व भारतीयों ने पृथ्वी की देशांतर रेखाएं, अर्थात् अक्षांश / रेखांश और मध्य रेखा की व्यवस्थित कल्पना की थी। यह मध्य रेखा, प्राचीन वत्सगुल्म (अर्थात् आज का वाशिम, महाराष्ट्र) के मध्येश्वर मंदिर में स्थित भगवान शंकर के पिंडी से निकलते हुए आगे जाती है। यही रेखा उज्जैन के पास से निकलती है। प्राचीन खगोलशास्त्र में उज्जैन का बड़ा महत्व है। इसीलिए उज्जैन में वेधशाला का भी निर्माण किया गया है। कोल्हापुर में, अंबामाता देवी के मंदिर में, वर्ष के एक विशिष्ट दिवस के अवसर पर, सूर्य की किरणें, सीधे मूर्ति के चेहरे पर पड़ती हैं। भारतीय स्थापत्य कला के पूर्णता का, या प्रवीणता का यह अनुपम उदाहरण है।
उस समय, स्थापत्य कला में हम कितने प्रगत थे, इसकी कल्पना हम आज भी नहीं कर सकते। जिस समय कंबोडिया में विश्व के सबसे बड़े प्रार्थना स्थल, ‘अंगकोर वाट’ का निर्माण हो रहा था, उसी समय, चीन की राजधानी बीजिंग की नगर रचना (town planning) एक हिन्दू स्थापत्य शास्त्री कर रहा था। उसका नाम था – बलबाहु। आज के नेपाल के पाटन शहर का रहने वाला। पाटन, तेरहवीं शताब्दी में कांस्य और अन्य धातुओं की मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध था। इस शहर के कारीगरों द्वारा तैयार की गई बुद्ध की तथा अन्य हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ तिब्बत और चीन में सबसे ज्यादा बिकती थीं। तेरहवीं शताब्दी के मध्य में, चीनी राजा के आमंत्रण पर, पाटन से 80 कुशल कारीगर चीन में गए। उनका नेतृत्व कर रहा था, मात्र 17 वर्ष का बलबाहु।
आगे चलकर, चीन में बलबाहु का आरेखन और निर्माण कौशल देखकर चीन के राजा ने उसे बीजिंग शहर के नगर रचना का काम दिया। बलबाहु ने वह सफलता पूर्वक पूरा किया। चीनी संस्कृति की प्रतीक कही जाने वाली, ढलान वाले, एक के नीचे एक छतों की परंपरा बलबाहु ने ही प्रारंभ की थी। चीन में उच्चारण के अपभ्रंश के कारण, बलबाहु को ‘आर्निकों’ नाम से जाना जाता है। चीन की सरकार ने, 01 मई, 2002 में, बलबाहु (आर्निकों) के नगर रचना के योगदान के लिए, सम्मान स्वरूप, उसकी आदम क़द प्रतिमा, बीजिंग में स्थापित की है।
एक समय, पूरे विश्व में स्थापत्य कला में पारंगत और विशेषज्ञ माने जाने वाले हम लोग, आज पाश्चात्य स्थापत्य कला की अंधी नकल कर रहे हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा?
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