बाल केन्द्रित क्रिया आधारित शिक्षा – 3 (मनोविज्ञान)

–  रवि कुमार

गतांक में हमने बाल केन्द्रित शिक्षा की विस्तार से चर्चा की थी । इस अंक में मनोविज्ञान पर विचार करेंगे । भारतीय मनोविज्ञान में मन को छठी इन्द्रिय माना गया है । मन का काम है वस्तुओं के बिम्ब को दृष्टि, श्रुति, घ्राण, स्वाद और स्पर्श के द्वारा प्राप्त करना और फिर उन्हें विचार संवेदनों में बदलना । मन विचार का सीधा

संस्कार भी बाहर और भीतर से लेता है । सीधे विचार संस्कार जो मन भीतर से लेता है वह मन की सूक्ष्म दृष्टि या अन्तर्दृष्टि की क्षमता कहलाती है । भारतीय शिक्षा मनोविज्ञान में तीन प्रकार की प्रमुख बातें ध्यान में आती है ।

  1. अध्यापक केन्द्रित नहीं, अध्ययन केन्द्रित व्यवस्था अर्थात बाल केन्द्रित
  2. समस्त ज्ञान मनुष्य में अन्तर्निहित है ।
  3. ज्ञार्नाजन के लिए परिस्थिति व मनःस्थिति ।

Learning Methodology/Education by learning उपरोक्त बातों को पुष्ट करती हैं । अध्ययन केन्द्रित में दो प्रकार की प्रमुख बातें है एक विद्या भारती द्वारा प्रतिपादित पंचपदी शिक्षण प(ति अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग एवं प्रसार । दूसरा अध्यापक अध्येता संबंध अर्थात् आचार्य बालक संबंध । ज्ञार्नाजन के लिए साधन हमारी ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय । दोनों की क्षमता एवं विकास होने से ज्ञार्नाजन अधिक होगा । परिस्थिति व मनःस्थिति के लिए कहा गया ‘‘श्रद्धावान लभते ज्ञानम् ।’’ शिक्षण की पद्धति क्या हो यह मनोविज्ञान के द्वारा निर्धारित होनी चाहिए । अतः शिक्षा और मनोविज्ञान का घनिष्ट सम्बन्ध है । शिक्षा मानव विकास की प्रक्रिया है । मनोविज्ञान मानव प्रकृति का अध्ययन करता है । मनोविज्ञान शिक्षा की प्रक्रिया में सहायक होता है

शिक्षा प्रक्रिया में शिक्षक, विषय वस्तु एवं बालक इन तीनों का होना आवश्यक है । बालक इसमें केन्द्र बिन्दु होता है । शिक्षक को शिक्षा प्रक्रिया सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए विषय वस्तु के साथ बालक का ज्ञान अनिवार्य है । बालक की बुद्धि का स्तर, उसकी मनःस्थिति, प्रकृति एव अभिरुचियों की जानकारी शिक्षक के लिए अपेक्षित है । बालक के सम्बन्ध में यह मनोविज्ञान से ही संभव है ।

शिक्षण प्रक्रिया में सामान्यतः दो क्रम अपनाए जाते है – 1. मनोवैज्ञानिक 2. तार्किक । मनोवैज्ञानिक क्रम में छात्रों की क्षमता, रुचि, रुझान एवं आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता है । मनोविज्ञान में बालक जिस क्रम से स्वाभाविक रूप में सीखते है, शिक्षण में उसी क्रम को अपनाना चाहिए । तर्कात्मक का अर्थ पाठ्य विषय का तर्कात्मक ढंग से प्रस्तुत करने से है । इसमें पाठ्यवस्तु को एक क्रम के अनुसार विकसित करते हुए शिक्षक बालकों को अन्तिम स्वरूप तक भेजता है । ऐसा करते समय वह बालकों की रुचि, जिज्ञासा तथा ग्रहण शक्ति की अवहेलना करता है । प्रारम्भिक कक्षाओं के बालकों के शिक्षण में शिक्षक को मनोवैज्ञानिक क्रम ही अपनाना चाहिए । उच्च कक्षाओं के छात्रों के शिक्षण में तर्कात्मक क्रम का प्रयोग करना उपयुक्त होगा । शिक्षक को शिक्षण प्रक्रिया में मनोवैज्ञानिक क्रम से तर्कात्मक क्रम की ओर चलना चाहिए ।

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