शिशु शिक्षा 33 – शिशु के संस्कार में पारिवारिक वातावरण की भूमिका

 – नम्रता दत्त

शिशु अवस्था (0 से 5 वर्ष तक) संस्कार ग्रहण करने की सर्वश्रेष्ठ अवस्था मानी जाती है, क्योंकि इस अवस्था में शिशु का अन्तःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त) निर्मल होता है इसीलिए उसे भगवान का स्वरूप भी कहते हैं। अपने स्वाभाविक गुणों (अनुकरण, जिज्ञासा, पुनरावृत्ति, निरुद्देश्य और निष्काम कार्य करने की वृत्ति आदि) के कारण वह अपने आसपास के वातावरण से सीखता जाता है। यह आयु घर में ही पालन पोषण की है, अतः सीखने की दृष्टि से पहला विद्यालय घर ही होता है। जन्म देने के कारण माता को ही उसका पहला गुरु कहा जाता है, परन्तु जन्म के पश्चात् माता के साथ साथ परिवार के सदस्य एवं पारिवारिक वातावरण भी उसके गुरु होते हैं। अतः परिवार के सभी सदस्यों की जिम्मेदारी है कि वे घर के वातावरण को संस्कारित बनाए रखें ताकि शिशु सुसंस्कारित बने। इस अवस्था के संस्कार जीवन भर साथ रहते हैं और चरित्र का निर्माण करते हैं।

अपने बचपन में जब मैं महापुरुषों के बारे में पुस्तकों में पढ़ती थी तो उन महापुरुषों के माता पिता के नाम के साथ-साथ उनका चरित्र कैसा था, ऐसा भी लिखा होता था (जैसे – उनकी माता बङी धार्मिक और पिता समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे) और उसे भी याद करना पङता था। उस समय इसका महत्व समझ नहीं आता था। लेकिन आज समझ आता है कि इसी पारिवारिक वातावरण के कारण ही वे महापुरुष बन पाए।

गत सप्ताह एक सत्संग में जाना हुआ। मंच पर आसीन गुरु मां से आशीर्वाद लेने दो बच्चे यश (आयु लगभग 4 वर्ष) और देव (आयु लगभग 3 वर्ष) आए। बच्चों के हाथ में कुछ पैसे भी थे जो परिवार ने उन्हें दान देने के लिए दिए थे। गुरु मां उनकी भूरि भूरि प्रशंसा कर रही थीं। सत्संग के पश्चात् उन्होंने अपने छोटे छोटे हाथों से सब को प्रसाद दिया। अंत में अपना प्रसाद लेकर आराम से बैठकर खाया। मैं बच्चों की आयु और उनके व्यवहार को देखकर प्रभावित हुई और उनके व उनके परिवार के विषय में जानने के लिए गुरु मां से बात की तो पता चला कि वे संयुक्त परिवार में रहते हैं। उनके पिता का स्वर्गवास (कोरोना काल में) हो गया है। उनके ताऊ जी ही उनका पालन पोषण करते हैं। ताऊ जी के भी अपने तीन बच्चे हैं। पांचों बच्चे बङे प्यार से रहते हैं। घर में जो भी सामान बच्चों के लिए आता है, उसको वे सब बांटकर लेते हैं। परिवार में ताई और चाची (यश और देव की माता) दोनों को देखकर यह जानना कठिन है कि कौन सी माता किन बच्चों की माता है। दोनों बच्चे ताऊ जी को ही पापा कहते हैं और पांचों बच्चे दोनों (ताई और चाची) को ही बङी मम्मी और छोटी मम्मी कहते हैं। परिवार तन मन और धन से सत्संग की सेवा में समर्पित है।

परिवार के वातावरण का प्रभाव बच्चों पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था। परिवार साक्षात् अपने व्यवहार से बच्चों को शिक्षा दे रहा है। बड़ों का सम्मान करना, दान देना, बांटकर खाना, प्रेम से रहना, प्रेम से बात करना, सत्संग में जाना जैसे संस्कार बच्चे पारिवारिक वातावरण के कारण सहज ही धारण कर रहे हैं। इन संस्कारों के साथ परोपकार, देने की भावना, सहयोग की भावना, मृदु भाषिता, ईश वन्दना, सहनशीलता, समर्पण, धैर्य आदि जैसे संस्कार अपने आप ही आ जाते हैं। यह संस्कार उसके भावी जीवन के लिए नींव का कार्य करते हैं। इनका लाभ न केवल उसके जीवन को मिलता है बल्कि परिवार, समाज, देश और विश्व को भी मिलता है। समाज सेवा, देशभक्ति और वसुधैव कुटुम्बकम् का भाव (समष्टिगत विकास), पर्यावरण संरक्षण (सृष्टिगत विकास) के साथ साथ मोक्ष प्राप्ति (परमेष्ठिगत विकास) तक का माध्यम भी यही शिशु अवस्था के संस्कार बनते हैं।

बहुत से संस्कार तो मैट्रो सिटिज के कारण समाप्त ही होते जा रहे हैं जैसे मल्टी स्टोरिज में रहने वाले गाय को रोटी नहीं देते, चीटियों को आटा नहीं देते। परन्तु जो परिवार ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के महत्व समझते हैं वे बच्चों को साथ लेकर गौशाला खोजकर भी गायों को चारा डालने जाते हैं। वे अपनी सोसायटी के पार्क में भी चीटिंयों को आटा डालते हैं। ऐसे कुछ परिवार मैं अपनी सोसायटी में भी देखती हूँ। सुनने में ये बात बहुत बङी नहीं लग रही होगी। लेकिन सबको देने का भाव ही तो मनुष्य को देवता बनाता है। तब ही तो हम कहते हैं कि ‘सेवा का परिणाम है – नर से नारायण बनना’, ‘लेने की भावना स्वार्थ है और देने की परमार्थ’।

यदि कोई भी साधन उपलब्ध न हो तो गीत और कहानी तो ऐसी शिक्षा के माध्यम बन ही सकते हैं और जब सम्भव हो तो ऐसा प्रत्यक्ष रूप से करना चाहिए। इतिहास इस बात का साक्षी है कि माता जीजाबाई ने दूध पीते बालक शिवा को शिशु अवस्था में ही लोरी और कहानियों के माध्यम से ही छत्रपति शिवाजी बना दिया था। ऐसे अनेकों उदाहरण न केवल प्राचीन संदर्भ में बल्कि आज के संदर्भ में भी दिखाई देते ही हैं।

परिवार के प्रेम, स्नेह, सुरक्षा के आनन्दपूर्ण भावावरण (वातावरण) में यह संस्कार अनायास ही उसके भावी जीवन की शैली बन जाते हैं। इसीलिए कहा जाता है – ‘लालयेत् पंचवर्षाणि’ अर्थात् पांच वर्ष तक शिशु का लालन पालन लाड प्यार से करें क्योंकि भय के वातावरण में सुसंस्कारों का बीजारोपण असम्भव है। अतः किसी भी प्रकार की तेज ध्वनि जैसे – बोलचाल की भाषा, लङाई-झगङे, तेज संगीत, कङकती बिजली, गरजते बादल आदि की ध्वनि से शिशु को दूर ही रखना चाहिए।

पारम्परिक एवं सांस्कृतिक अवसरों पर उसे छोटा बच्चा समझ कर उपेक्षा न करें बल्कि यही समय उसके सीखने के लिए उपयुक्त है , इस महत्व को समझते हुए उसे हर गतिविधि में शामिल करें।

स्वामी विवेकानन्द जी के अनुसार ‘शिक्षा का अर्थ व्यक्ति आत्मविश्वासी, आत्मनिर्भर और सशक्त बनाना है’। इसके लिए आत्मा को सतोगुणी (शक्तियां, पवित्रता, सुख, प्रेम, शान्ति, ज्ञान और आनन्द) बनाना आवश्यक है और आत्मा की यह शिक्षा गर्भ से ही प्रारम्भ हो जाती है। आत्मा में उसके गुण विद्यमान हैं लेकिन वातावरण के द्वारा ही उन्हें बाहर निकाला जा सकता है। इसके लिए विद्यालय जाने की प्रतिक्षा न करें क्योंकि यह कार्य तो माता/घर- परिवार से ही प्रारम्भ होने वाला है। बच्चे के लिए विद्यालय का चयन भी सोच समझ कर करें, ताकि बच्चे को उचित वातावरण मिल सके क्योंकि पांच वर्ष तक की आयु में सम्पूर्ण जीवन के 85% संस्कारों का निर्माण हो जाता है और मनुष्यता शिशु के नन्हें पग से ही आगे बढती है।

(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती शिशुवाटिका विभाग की अखिल भारतीय सह-संयोजिका है।)

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