– अवनीश भटनागर
शिक्षा के समक्ष चुनौती : आजकल वाट्सप पर अनेक सन्देश आते हैं । मेरे एक मित्र ने मुझे एक मेसेज भेजा, मैं उसका उल्लेख इस सन्दर्भ में कर रहा हूँ । इस मेसेज में एक-दो सैकण्ड की छोटी-छोटी क्लिपिंग्स हैं । एक 5-6 वर्ष का छोटा बच्चा है, माँ बैठी हुई कुछ काम कर रही है । बच्चा आता है, बड़े लाड से माँ के गले में हाथ डालता है और कहता है, ‘ममा! आई लव यू’! माँ ने उसके सिर पर हाथ फैरा, गाल थपथपाया और बोली, ‘आई लव यू बेटा’ । बच्चा चला जाता है और खेलने में लग जाता है ।
अगली क्लिपिंग, वही बच्चा, दस वर्ष बाद की बात है । अब वह 15-16 वर्ष का हो गया है, स्कूल जाता है पढ़ाई करता है, इसलिए समय कम है माँ के पास आने का, कभी-कभी माँ के पास आता है । एक दिन वह आया और बोला, ‘ममा! आई लव यू’! माँ जानती है कि आज आई लव यू क्यों कर रहा है । माँ बोली, कितने पैसे चाहिए । मॉल जाना है या फिल्म देखने जाना है या कोई प्रोग्राम है दोस्तों के साथ, कहीं घूमने जाना है क्या? और पैसे दे देती है ।
और दस वर्ष निकल जाते है, अब वह 25-26 वर्ष का यूवा है । पढ़ाई पूरी हो गयी है, नौकरी या धंधा कर लिया है । इसलिए अब तो माँ के पास आना और भी कम हो गया है । फिर भी एक दिन माँ के पास आकर कहता है, ‘ममा! आई लव यू । माँ पूछती है, कौन है, कब मिलवायेगा? तेरे डेडी से बात मैं कर लूँगी, एरेंज करवा दूंगी । और दस वर्ष निकलते हैं, अब वह 36-40 की उम्र का हो गया है । युवा से प्रौढ़ता की बढ रहा है । व्यस्तता और बढ़ गई है । बच्चे है, उन्हे होमवर्क करवाना है, स्कूल छोड़ना व लाना है, घर आता है, वही डायलॉग, ममा! आई लव यू, । माँ बोली मैंने तो समझाया था, इस लड़की से शादी मत कर । अब की है तो भाग, यह तेरी समस्या है ।
और 10-15 वर्ष निकल जाते है । वह 5-6 वर्ष को बच्चा अब वृद्ध हो गया है, आयु 55-60 वर्ष के लगभग है, उसकी माँ की आयु भी 75-80 के लगभग हो गई है । उसे अपने बच्चों की शादी के चिन्ता है, फिर भी एक दिन माँ के पास आता है और वही डायलॉग, ‘ममा! आई लव यू’ माँ बोली चाहे जितना लवयू-लवयू कर मैं किसी भी पेपर पर साईन नहीं करूँगी । वैसे तो यह चुटकला ही है, परन्तु इसमें हँसी के तत्व को निकाल दें तो जब वह 5-6 वर्ष का अबोध बालक था । तब उसके लिए लव यू माने लव यू, माँ के प्रति भेदभाव होने के कारण ही आई लव यू कहता है । बड़े होने के बाद तो आई लव यू के माने माई गर्लफ्रेंड, माई फैमिली, माई प्रोपर्टी है । ‘माई, मी, मेरा’ में पूरी जीवन निकल रहा है । आज की शिक्षा एक सेल्फ सेन्टर्ड अर्थात् आत्मकेन्द्रित पीढी तैयार कर रही है, जिसे अपने परिवार, समाज और देश – दुनियाँ से मानवता से कोई मतलब नहीं है । मेरे सुख के लिए कुछ भी करने को तैयार हूँ यह व्यक्तिवादी चिन्तन शिक्षा के सामने बहुत बड़ी चुनौती है । हमें इस चुनौती को स्वीकार कर वर्तमान शिक्षा की दिशा बदलनी है ।
शिक्षा में विखण्डित नहीं, समग्र दुष्टि हो : मैं दो शिक्षाविदों के वक्तव्य बतलाता हूँ । एक ही प्रश्न लगभग 30 वर्षो के अन्तर से देश के दो बड़े शिक्षाविदों से पूछा गया था । सन् 1963 की बात है, उदयपूर में डॉ. डी. एस. कोठारी जो उस समय एजुकेशन कमिशन के चेयरमेन थे । उनका एक व्याख्यान हुआ, व्याख्यान के पश्चात् प्रश्नोत्तर का कार्यक्रम था । प्रश्नोत्तर में उनसे पूछा गया, डॉ कोठारी हमारे देश की शिक्षा की मूलभूत समस्या क्या है (वाट इज अवर बेसिक प्रोबलम्स ऑफ एज्यूकेशन इन इंडिया) । उन्होंने उत्तर दिया कि भारत के शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों का गुरुत्वकेन्द्र भारत के बाहर यूरोप और अमेरिका हो गया । वहाँ जो कुछ भी होता है । यहाँ की शिक्षा का आदर्श मानकर लागू कर देते हैं । यह भी नहीं देखते कि वह हमारे देश के अनुकूल या प्रतिकूल, हमारी संस्कृति, हमारे रीति-रिवाज़, हमारी परम्पराओं के अनुकूल या प्रतिकूल का विचार किये बिना हम उसे एक्सपेरीमेन्ट के तौर पर लागू कर देते हैं और जब दो-चार साल बाद उसके दुष्परिणाम सबके सामने आते हैं तब हम उसे रिजेक्ट करते हैं । नई पोलिसी के नाम पर फिर हमारा शिष्ट मंडल किसी यूरोपियन या अमेरिका देश की यात्रा पर जाता है । वहाँ से कुछ नई विधाएँ, नई चीचें खोज लाते हैं और फिर अपने देश में लागू करने की कोशिश करते हैं । जो गुरुत्वकेन्द्र आज यूरोप में है, वह जब तक पुनः भारत में नहीं आयेगा तब तक हम कितने भी ऊपर-ऊपर के परिवर्तन कर लें अभिनव भारत का विचार कैसे फलदायी होगा । अतः अभिनव भारत में इस गुरुत्वकेन्द्र को भारत में लाना, यह परमाश्वयक कार्य होगा ।
ठीक यही प्रश्न सन् 2011 में डॉ. यशपाल से पूछा गया । टी.वी पर उनका इन्टरव्यू चल रहा था । विनोद दुआ उनका इन्टरव्यू ले रहे थे । 5 सितम्बर 2011 शिक्षक दिवस की रिकोडेट बात है । डॉ. यशपाल से पूछा,‘ भारत में शिक्षा की मूलभूत समस्या क्या है? डॉ यशपाल ने शिक्षा की जो आज की स्थिति है, उसकी ठीक-ठीक व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि यह समस्या केवल अकेले भारत में ही नहीं है बल्कि विकासशील अर्थव्यवस्था वाले सभी देशों में है । समस्या क्या है? इन देशों में एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति होती है, जो शिक्षा के निर्माण में पाठ्यचर्या बनाती है । पाठयचर्या बनाने वाले कोई और, पाठयक्रम बनाने बाले कोई और । पाठ्यक्रम पर पुस्तकें लिखने वाले कोई और । पाठयपुस्तकें लिखने वाले प्रोफेसनल राइटर्स होते हैं । कोईसा भी विषय हो और पाठयक्रम में कैसा भी परिवर्तन हो दो से छः महीने के अन्दर नई पुस्तक आ जाती है । जो पुस्तक लिखते हैं, वे क्लासरूम में पढाने नहीं जाते । जो पुस्तक क्लासरूम में पढ़ाते है, वे प्रश्न पत्र नहीं बनाते । प्रश्नपत्र बनाने वाले कोई और, कॅापी जाँचने वाले कोई और । क्या सोचकर विद्यार्थी ने उत्तर दिया? इसका विचार किये बिना अंक देते हैं और उसे पास या फेल घोषित कर देते हैं । व्यवस्था के आधार पर हम शिक्षा में से कुछ भी आउटपुट नहीं निकाल पाते । इसका कारण हमारी विखण्डित दृष्टि है । हमको शिक्षा की व्यवस्था ठीक करने के लिए समग्रता में विचार करने की आवश्यकता है । हमने समग्रता को छोड़कर शिक्षा को मात्र इन तीन सिकंजो – पाठ्यक्रम, टाईमटेबल व परीक्षा में जकड़ रखा है, इसलिए नया कुछ भी नहीं निकाल पा रहे हैं ।
गुरु के गुरुत्व को जागाना होगा : शिक्षा के सम्मुख उपस्थित चुनौतियों पर शिक्षाविदों को विचार कर मार्ग निकालना चाहिए । सम्पूर्ण विश्व में आज शिक्षा का केन्द्र कम्प्यूटर व तकनीक बनी हुई है । हमारे यहाँ तो कम्प्यूटर की शुरुआत 1985 के बाद हुई, परन्तु अमेरिका में कम्प्यूटर 60-70 वर्ष पहले से चला आ रहा है । इन 70 सालों में आपने यह कभी नहीं सुना होगा कि अमेरिका में कॉलेज और युनिवर्सिटीज बन्द करने पड़े हो, क्योकि विद्यार्थी कॉलेज आता ही नहीं, घर में ही कम्प्यूटर पर बैठकर अपनी पढ़ाई कर लेता है । ऐसा नहीं हुआ, हजारों वर्षों से स्थापित गुरु-शिष्य परम्परा का आज कोई भी विकल्प नहीं है । आज के तकनीकी युग में भी गुरु का या शिक्षक का महत्त्व समाप्त नहीं हुआ है । परन्तु गुरु का गौरव अवश्य कम हुआ है । हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था में जिनको केन्द्र बिन्दु बनाकर भारत विश्व गुरु बना है । आज उस गुरु के गौरव को हमने भुला दिया है । हमने अर्थात् समाज ने भुला दिया है, मात्र इतना ही नहीं तो स्वयं गुरु को गौरव का भान नहीं है । यही समस्या की जड़ है । आज के गुरु अथवा शिक्षक को लगता है कि हमसे तो प्रशासनिक अधिकारी, उद्योगपति या व्यवसायी अथवा अन्याय क्षेत्रों में गये हुए मेरे सहपाठी जितना कमाते हैं, उतना मैं नहीं कमा पाता हूँ । इस मानसिकता के कारण पिछले 15-20 वर्षों से एक नई स्थिति उत्पन्न हुई । और वह यह कि आज शिक्षा के क्षेत्र में जाने को कोई तैयार ही नहीं है । मैं डॅाक्टर या इंजिनीयर नहीं बन सका, आर.ए.एस में भी चयन नहीं हुआ । बैंक या पोस्ट ऑफिस में अथवा रेलवे में भी नम्बर नहीं लगा, अतः अन्तिम मजबूरी मान मास्टर ही बन जाता हूँ । ऐसे थके हुए तन और टूटे हुए मन से लगे हुए शिक्षक के माध्यम से शिक्षा का उद्धार करने का स्वप्न कभी पूरा नहीं हो सकता | देश के सम्पुर्ण शिक्षक समुदाय को अपने दायित्व को समझने के साथ-साथ उसके प्रतिन्याय करने की नितान्त आवश्यकता है । इसलिए शिक्षक को, गुरु को उसके गुरुत्व को पुनः जाग्रत करने की अनिवार्य आवश्यकता है ।