– अवनीश भटनागर
पंचकोशात्मक विकास
भारत में शिक्षा जीवन विकास के लिए दी जाती रही है । उपनिषद् में व्यक्ति का व्यक्त्त्वि पंचकोशात्मक बताया है ये पाँचकोश हैं – अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश तथा आनन्दमय कोश । व्यवहार जगत में इन कोशों का विकास करना ही व्यक्त्तिव का विकास करना है ।
शारीरिक विकास : अन्नमय कोश अर्थात् हमारा यह शरीर, इस शरीर का विकास करना ही शरीरिक विकास है । शरीर का विकास यानि विद्यार्थी को पहलवान बनाना नहीं, दारासिंह बनाना नहीं है । शरीर का विकास करना अर्थात् शरीरिक क्षमताओं का विकास करना । आज शिक्षा की सम्पूर्ण व्यवस्था में शारीरिक शिक्षा का पक्ष समाप्त हो गया है । शारीरिक शिक्षा याने स्पोर्टमेन, अर्थात् खेलकूद की स्पर्धाओं में पदक व शील्ड लाने की जुगाड़ लगाना ही शरीरिक शिक्षा का अंग हो गया है । शारीरिक शिक्षा इन बातों का विकास नहीं, अपितु शरीर में जो जन्मजात क्षमताएँ व सम्भावनाएँ है, यथा-बल, लोच, गति,उछाल व तितिक्षा आदि का विकास करना है । यह विकास करना शिक्षा का अंग बनना चाहिए ।
प्राणिक विकास : प्राणमय कोश अर्थात् प्राणशक्ति । प्राणशक्ति के विकास के बारे में हमारी शिक्षा व्यवस्था में कोई विचार नहीं होता । बाबा रामदेव की कृपा से थोड़ा योग का प्रचार हो गया और थोड़ा आसन से आगे प्राणायाम तक हमने योग को मान लिया । शेष छः अंगो के बारे में शायद नाम भी न सुने हों । मै प्रायः कहता हूँ कि श्रीमद्भगवद्गीता के सारे अध्यायों का नाम किसी न किसी योग पर आधारित है । पहला ही अध्याय अर्जुन-विषाद योग है । इसमें युद्ध होने वाला है, शंख ध्वनि हो चुकी है, अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते है कि दोनों सेनाओं के बीच में रथ को ले चलों और खड़ा कर दो । श्रीकृष्ण रथ ले जाते हैं । और भीष्म पितामह के रथ के सामने खड़ा कर देते हैं । अर्जुन उन सबको देखकर कहता है, अरे! ये तो पितामह हैं, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य तो गुरुजी है, ये शल्य मामा हैं । अन्य सबमें कोई भाई है, भतीजा है, ताऊ है, सबके सब रिश्तेदार हैं । अगर इन्हें मारकर युद्ध जीतना है और राज्य प्राप्त करना है तो मैं नहीं करूँगा । रथ को वापस ले चलो कृष्ण । आज की भाषा में कहा जाये तो अर्जुन को नर्व ब्रेकडाउन हो गया था । उस समय कृष्ण ने अर्जुन को यही कहा कि ऐसा करों अर्जुन तुम्हारा युद्ध करने का मूड नहीं बन रहा, तुम तो रथ के पीछे जाओं और हलासन कर लो, दो मिनट शीर्षासन कर लों, सर्वांगासन करलो और साथ में जरा अनुलोम-विलोम करो, भस्त्रिका या भ्रामारी प्राणायाम करलो तो तुम्हारा मूड़ बन जायेगा, ऐसा नहीं कहा । अर्जुन को विषाद हो गया, विषाद यानि वही नर्वसनेस, वह विषाद दूर करने के लिए अर्जुन का विषाद ही योग है । वहाँ तो आसान-प्राणायाम की बात नहीं की, फिर यह कैसा योग है? योगसूत्र के प्रणेता ऋषि पंतजलि को कहा जाता है । एक और शब्द है योगेश्वर, योगेश्वर शब्द पतंजलि के लिए नहीं है भगवान श्रीकृष्ण के लिए है । आपने दुनियाँ भर में श्रीकृष्ण के अनेक चित्र देखे होंगे । किसी चित्र में माखन चुराते हुए, किसी में गाय चराते हुए, किसी में गाय की पूजा करते हुए, किसी में रास रचाते हुए, नृत्य करते हुए, यहाँ तक की अर्जुन का रथ चलाते हुए के चित्र तो देखे होंगे, परन्तु कभी हलासन करते हुए या सर्वांगासन करते हुए अथवा अनुलोम-विलोम करते हुए श्रीकृष्ण का चित्र कभी नहीं देखा होगा, फिर भी हम उन्हे योगेश्वर कहते हैं । किस बात के लिए योगेश्वर कहते है, योग तो कभी करते नहीं । इसका अर्थ यह है कि योग शिक्षा का विषय था । हमने उसको केवल शारीरिक स्वास्थ्य के साथ सीमित कर दिया । इस योग का हमने अलग विचार कर लिया, वास्तव में यह शिक्षा का अंग होना चाहिए । शिक्षा की योगाधारित होनी चाहिए ।
बालक में प्राणिक विकास होना चाहिए । जब प्राणशक्ति का विकास होगा,तभी शरीर काम करेगा ।
एल.ई.डी में से प्रकाश आना, ए.सी. में से ठण्डी हवा आना, माईक में से आवाज आना तभी तक चलता है, जब तक बिजली है । जैसे ही विद्युत परिपथ भंग होगा, करंट आना बन्द होगा त्यों की ये सारे उपकरण काम करना बन्द कर देंगे । अर्थात् बिजली यह प्राणशक्ति है । शरीर भी प्राणशक्ति से चलता है, हमने उस प्राणशक्ति को केवल आसन प्राणायाम नहीं माना । यह प्राणशक्ति तो शरीर की जीवनी शक्ति है, इस जीवनी शक्ति के विकास के लिए शिक्षा होनी चाहिए ।
हम सब बड़े प्रसन्न हैं कि विश्व के इतने देशों ने 21 जून को योग दिवस के रुप में स्वीकार कर लिया है । हमारी सरकार, हमारे प्रधानमंत्री और हमारे देश को इसका श्रेय मिला है, इसलिए हम सबके लिए यह आनन्द की बात है । हम भारतीय इसलिए प्रसन्न नहीं हैं कि योग जैसी भारतीय विद्या की सम्पूर्ण विश्व में स्थापना हो गई, अपितु इसलिए प्रसन्न हैं कि हमारे पतंजलि अमेरिका की परीक्षा में पास हो गये । शिक्षा का यह स्वरूप जो हमारे अन्दर गौरव का भाव जगाने वाला होना चाहिए ।
मानसिक विकास : शरीर सबल हो, प्राणशक्ति प्रबल हो, मन एकाग्र हो, अनासक्त हो और शान्त हो, यह विकास की पहली शर्त है । प्राणशक्ति को भी प्रभावित करने वाली मन की शक्ति है । मन के लिए कहा है, “मन एवं मनुष्याणां कारणम् बन्धमोक्षयों” मन मनुष्य को बन्धन में डालता है तो वही मन उसे मोक्ष भी दिलवाता है । ऐसे मन की शक्ति को बढ़ाना, यह शिक्षा का अंग होना चाहिए था । शिक्षा के क्षेत्र में हमने मन की शिक्षा का विचार ही नहीं किया । मनोमय कोश के विकास का विचार शिक्षा से ही बाहर कर दिया गया मन के लिए मैंने जैसा कहा कि मन शान्त होना चाहिए, मन एकाग्र होना चाहिए और अनासक्त होना चाहिए, परन्तु मन का स्वभाव तो बड़ा चंचल है, मन कभी भी कहीं भी चला जाता है ।
महाभारत में यक्ष प्रश्न का प्रसंग आता है । उसमें एक प्रश्न है, यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा, वायु से भी तीव्र गति किसकी है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया मन की गति । हम इस सभागार में बैठे हैं और अभिनव भारत जैसे महत्त्वपूर्ण विषय पर चर्चा कर रहे हैं । लेकिन हम में से अनेक बन्धु यहाँ बैठे-बैठे अपने किसी मित्र से मिल आये होंगे, माताजी का हालचाल पूछ आये होंगे, कुछ बहनों ने आज अचार को धूप दिखाई होगी या नहीं, यह चिन्ता कर ली होगी । यहाँ बैठे-बैठे अनेक चीजें हमारे मन में चलने लगती है, हमारा मन कहाँ-कहाँ चक्कर लगाकर आ जाता है, इसका हमें ही पता नहीं लगता । इस मन की शक्ति को केन्द्रित करना, इसे एकाग्र करना शिक्षा है । स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं कि मुझे यदि एक जन्म और मिला तो मैं अपनी सारी शक्ति मन को एकाग्र करने में लगाऊंगा । शिक्षा के द्वारा मन को साधने का प्रयास होना चाहिए आज हमारे देश के किसी भी विद्यालय या महाविद्यालय में मन की शक्ति के विकास की शिक्षा देने का कोई भी प्रावधान नहीं है । फिर शिक्षा में होता क्या है? रट लर्निग होता है, छोटी कक्षा है, मैं ब्लेकबोर्ड पर लिखता हूँ और बच्चों को उसे उतार लेने को कहता हूँ थोड़ी बड़ी कक्षा है तो में कहता हूँ की कि मै डिक्टेड कर देता हूँ , तुम सब लिख लो । और बड़ी कक्षा है तो कहता हूँ कि पेज न.43 खोल लो, नीचे से दूसरा पेराग्राफ प्रश्न 3 का उत्तर है, यहाँ से वहाँ तक मार्क कर लो और कॉपी में लिख लेना और उसे रट लेना, परीक्षा में यह प्रश्न आये तो उत्तर लिख देना । इसके आधार पर छात्र पास या फेल होते हैं । यह है, आज की शिक्षा का स्वरूप, जिसे शिक्षाविद् ‘गल्प एण्ड वोमेट मैथड’ कहते हैं । पूरे वर्ष निगलते जाओं और परीक्षा की कॉपी में वमन अर्थात् उल्टी कर आओं, पास हो जाओगे । हम शिक्षा के माध्यम से व्यक्त्त्वि के विकास का विचार नहीं करते केवल पास हो जाए, इसी की चिन्ता करते हैं ।
बौद्धिक विकास : सामान्यता मन की चंचलता देर होकर एकाग्रता होना सरल काम नहीं है । इसके लिए मन के ऊपर बुद्धि का नियंत्रण आवश्यक है, ऐसा अपने मनीषियों ने कहा है । मन का बुद्धि का नियंत्रण हो, इसको समझाने के लिए कठोपनिषद् में और भगवद्गीता में रथ का रूपक दिया गया हैः-
आत्मन् रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु । बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रगहमेव च । ।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयां स्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्या हुर्मनीषिणः । ।
हमारा यह शरीर रथ के समान है, इस रथ में दस घोड़े जुते हुए हैं । ये दस घोड़े हमारी इन्द्रियाँ हैं, पाँच कर्मेन्दियाँ व पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ । ये दसों इन्द्रियाँ घोड़े के स्वभाव वाली है । घोड़ा दौड़ता रहता है, जिधर मुँह उठ जाए उधर दौड़ जाता है । तनिक विचार कीजिए किसी रथ में जुते घोडे़ दसों दिशाओं में दौड़ने लगें तो रथ का क्या होगा? इन दसों घोड़ों का नियंत्रण में रखने के लिए वल्गाय अर्थात् लगाम की जरूरत पड़ती है । वैसे ही शरीर में घोड़ों रुपी इन दसों इन्द्रियों को नियंत्रण रखने वाला मन लगाम है । मन का नियंत्रण इन इन्द्रियों पर होता है, तभी इन्द्रियाँ ठीक दिशा में कार्य करती हैं । लेकिन लगाम स्वयं कुछ नही कर सकती, यह जिसके हाथ में होती है, वह सारथी लगाम खींचता है तब घोड़े चलते हैं या रुकते हैं । मन रूपी लगाम को खीचने वाला सारथी बुद्धि है । मन जब बुद्धि के कहे अनुसार चलता है, तभी वह इन्द्रियों को भी सही दिशा में चला पाता है । सारथी रूपी बुद्धि जब विवेकशील होगी तभी वह निणर्य कर पायेगी कि इस दिशा में जाना चाहिए या नहीं । बालक जीवन पर्यन्त माता-पिता या शिक्षक की अंगूली पकड़कर चलने वाला नहीं है । उसको जीवन में विकास करने के लिए स्वयं निणर्य लेने होगें, उसके लिए बुद्धि का विवेकी होना आवश्यक है । परन्तु आज की शिक्षा बुद्धिशक्ति का विकास करने वाली नहीं है । हमारा जो समग्र शिक्षा का प्रतिमान है, उसमें बुद्धिशक्ति का विचार है, उसमें कहा गया – शरीर सबल हो, प्राणशक्ति प्रबल हो, मन शान्त, एकाग्र एवं अनासक्त हो और बुद्धि विवेकपूर्ण हो । प्रश्न खड़ा होता है कि इन सबका विनियोग कहाँ हो, सबका उपयोग क्या होना चाहिए?
नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास : विकसित शरीर, प्राण, मन और बुद्धि इन सबका उपयोग एक ही काम के लिए होना चाहिए, और वह है, नैतिकता व आध्यात्मिकता का विकास करना । यह विकास करना शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य है । आध्यात्मिकता का अर्थ सबको संन्यास लेना चाहिए और हिमालय की शरण में जाना चाहिए, ऐसा नहीं है । सांसारिक जीवन में रहते हुए, जीवन के सभी नियमों का पालन करते हुए अपने जीवन में आत्मतत्व को जानना, यह हमारी आध्यात्मिकता की अवधारणा है । ईश्वर का एक चैतन्य अंश जो मेरे अन्दर है, वही अंश आपके अन्दर है वही अंश पशु-पक्षी में , वृक्ष-वनस्पति में, नदी-पर्वत में तथा ग्रह-नक्षत्र सब में विद्यमान है । यह धारणा ही हमारे देश की, भारतीयता की और हिन्दू की आध्यात्मिकता है । आध्यात्मिकता की इतनी समझ आ गई तो समाज की सभी विपत्तियों का समाधान इसी में से निकल आयेगा । यदि मै यह स्वीकार कर लूं कि मुझमें जैसा ईश्वर का अंश है, वैसा ही आपके अन्दर भी है तो क्या मैं आपको कष्ट पहुँचा सकता हूँ? मुझे लगेगा कि मैं उस परम पिता परमात्मा का अपमान कर रहा हूँ । यह विचार आने पर क्या मैं आपसे धोखा-धड़ी कर सकता हूँ, क्या आपको दूर्वचन कह सकता हूँ, आपका अपमान कर सकता हूँ ? नहीं, कदापि नहीं । ईश्वर की उपस्थिति प्रत्येक कण-कण में है । शास्त्रों में कहा गया है,
‘‘ईशावास्यमिदं सर्व यत् कित्रचजगत्यांजगत्’’
कण-कण में भगवान की मान्यता का अनुभव करना ही आध्यात्मिकता है । नैतिकता अलग से कोई विषय नहीं है, आध्यात्मिकता ही उसकी आधार भूमि है । व्यक्ति जब नैतिक होगा तभी वह आध्यात्मिक होगा । अध्यात्म के बिना नैतिकता नहीं आ सकती । हम किसी को कानून से नैतिक नहीं बना सकते, आध्यात्म से बना सकते हैं । अतः आध्यात्मिकता, यह मूल विचार है, इस मूल विचार का व्यक्ति के अन्तःकरण में स्थापित करना ही शिक्षा का परम उद्देश्य है ।
आध्यात्मिकता के कारण की संवेदनशीलता जागृत होती है । यह परिवार मेरा, समाज मेरा, राष्ट्र मेरा, मुझे इस राष्ट्र के लिए सब कुछ करना चाहिए, यह विचार स्थापित करने वाली शिक्षा व्यवस्था ही भारत की शिक्षा है । ऋषि-मुनियों द्वारा दी गई शिक्षा पुनः स्थापित होगी, तभी अभिनव भारत की संकल्पना भी साकार हो सकेगी ।
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