भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-59 (सांस्कृतिक अर्थशास्त्र, भाग-2)

 – वासुदेव प्रजापति

अब तक इस बिन्दु की स्पष्टता हुई होगी कि इकोनोमिक्स के सिद्धांतों पर चलने से सर्वजनहिताय व सर्वजनसुखाय का उद्देश्य सिद्ध नहीं होता। और अर्थ के सांस्कृतिक स्वरूप का विचार करने पर अनेक सन्दर्भ ही बदल जाते हैं, जैसे-

व्यवसाय परिवारगत होना चाहिए

हमारा अनुभव यही है कि व्यवसाय व्यक्तिगत न होकर परिवारगत होना लाभदायक होता है। भारतीय समाज व्यवस्था में समाज की मूल इकाई व्यक्ति नहीं परिवार है। जिस समाज व्यवस्था में मूल इकाई परिवार हो, वहाँ व्यवसाय भी परिवार का होना उचित है। ऐसा होने के अनेक लाभ हैं।

  1. परिवार की समरसता बनी रहती है।
  2. प्रत्येक व्यक्ति का योगक्षेम सुरक्षित रहता है।
  3. व्यवसाय स्वत: वंशानुगत हो जाता है।
  4. व्यवसाय वंशानुगत होने से व्यावसायिक कुशलता बढ़ती है और उत्पादन की
  5. गुणवत्ता बढ़ती है।
  6. व्यवसाय के वंशानुगत होने से समाज व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था भी सहज रूप से निर्माण होती है।

वंशानुगत व्यवसाय से सम्बन्धित एक कथा ‘मूर्ति के दाम’

एक मूर्तिकार था। वह बहुत सुन्दर मूर्ति बनाता था। उसका एक पुत्र था। वह पुत्र हमेशा अपने पिता को मूर्ति बनाते देखता था। धीरे-धीरे वह भी अपने पिता से मूर्ति बनाना सीख गया। अब वह भी अपनी बनाई मूर्ति लेकर पिता के साथ हाट जाता। पिता की बनाई मूर्ति शीघ्र ही बिक जाती और मूर्ति के पांच रुपए मिलते। उसकी बनाई मूर्ति देरी से बिकती और केवल दो रुपए ही मिलते।

घर आकर वह पिता से पूछता, मेरी बनाई मूर्ति के दाम कम क्यों मिलते हैं? मैं भी आप जैसी मूर्ति बनाना चाहता हूँ। मूर्ति बनाने में जो कमियाँ रह गई थीं, पिता उनकी ओर ध्यान दिलाते। वह अगली बार उन कमियों को सुधार लेता। ऐसा करते-करते वह भी एक कुशल मूर्तिकार बन गया। अब उसकी बनाई मूर्तियाँ भी पिता के साथ-साथ ही बिक जाती और दोनों मूर्तियों के पैसे भी बराबर मिलते।

कुछ समय बाद उसने पिता से भी अच्छा मूर्तिकार बनने का निश्चय किया। वह पिता से अच्छी मूर्ति बनाने के उपाय पूछता। पिता भी उसे उपाय बताते और उसे प्रोत्साहित करते। वह भी बड़ी लगन व मेहनत से अच्छी मूर्ति बनाता। अब उसकी मूर्ति पिता से अधिक दाम में बिकने लगी। वह जब तक पिता से पूछ-पूछ कर मूर्ति बनाता रहा तब तक उसकी मूर्ति के दाम और अधिक बढ़ते गए। धीरे-धीरे उसके मन में आया कि अब पिता से क्या पूछना। मैं तो उनसे भी बहुत अच्छी मूर्ति बनाता हूँ। मेरी बनाई मूर्ति दुगने दाम में बिकती है। और उसने अपनी मूर्तियों के बारे में पिता से सलाह लेना बन्द कर दिया।

धीरे-धीरे उसकी बनाई मूर्ति के दाम कम मिलने लगे। तब उसे चिन्ता हुई। वह अपने पिता के पास गया और पिता को सारी बात बताई। पिता ने उसकी बात को धैर्यपूर्वक सुना। फिर बताने लगा कि जो गलती कभी मैंने की थी, वहीं गलती अब तूने दोहरा दी। पुत्र ने जिज्ञासा के साथ पूछा, आपने कौन सी गलती की थी? मैंने भी स्वयं को तेरे दादा से बड़ा मूर्तिकार मानकर उनकी सलाह न मानने की ग़लती की थी। मैं भी एक दिन तेरे दादा से बड़ा मूर्तिकार बन गया था। मैंने भी उनकी सलाह माननी बन्द कर दी थी। बस! उसी दिन से मेरा विकास रुक गया। आज तेरे साथ भी यही हुआ है। पुत्र को बात समझ में आ गई, अब वह फिर से पिता की सलाह के अनुसार मूर्ति बनाने लगा और एक दिन विख्यात मूर्तिकार बनकर अपने दादा व पिता का नाम उज्जवल किया। ये हैं, वंशानुगत व्यवसाय के लाभ।

कुछ कार्य क्रय-विक्रय से परे हैं

विद्या, अन्न (भोजन), जल, औषध, रुग्ण परिचर्या, शिशु संगोपन, पूजा और धार्मिक अनुष्ठान आदि ऐसे कार्य हैं, जिन्हें क्रय-विक्रय के दायरे से बाहर रखना चाहिए। ये सभी सेवा के कार्य हैं। इनका मूल्य भौतिक नहीं है, सांस्कृतिक है। ये मनुष्य के सांस्कृतिक विकास के मापक हैं। ये कार्य पवित्र और आदर के योग्य हैं। इन्हें भौतिक स्तर पर नीचे उतार देने से समाज और संस्कृति का पतन होता है। इन्हें व्यवसाय नहीं बनाना चाहिए। अर्थात् इन कार्यों से अर्थार्जन नहीं करना चाहिए।

अर्थव्यवस्था का सम्बन्ध भौतिक पदार्थों के साथ है। शिक्षा, सेवा, चिकित्सा व प्रेम, पवित्रता आदि अभौतिक तत्त्व हैं। हमारे यहाँ वस्तु विनिमय और श्रम विनिमय का भी प्रचलन था। उस समय भी ये सभी पवित्र कार्य लेन-देन से बाहर थे। आज पैसों के माध्यम से सारा लेन-देन होता है। आज के इकोनोमिक्स की यह  मान्यता है – Everything is converted and computed into money. यह मान्यता भौतिक के साथ-साथ अत्यन्त यांत्रिक व्यवस्था है। प्रेम, पवित्रता, ज्ञान, सेवा आदि को पैसों में परिवर्तित करना अस्वाभाविक, अव्यावहारिक तथा अमनोवैज्ञानिक है।

उत्पादन, वितरण और विकेन्द्रीकरण

उत्पादन के साथ उत्पादक, उपभोक्ता व संसाधन ये तीनों जुड़े हुए हैं। ये तीनों सुलभ होना तथा उत्पादन व वितरण की व्यवस्था कम खर्चीली व सहज होना आवश्यक है। इस दृष्टि से अधोलिखित बिन्दुओं को ध्यान में रखकर चलना चाहिए।

  1. उत्पादक और उपभोक्ता में कम से कम अन्तर होना चाहिए। यह अन्तर जितना अधिक होता है, उतने ही फालतू खर्चे, फालतू व्यवस्थाओं का बोझ बढ़ता है तथा कीमतों में अनावश्यक वृद्धि होती है।
  2. भारत में जिस प्रकार समाज व्यवस्था की मूल इकाई परिवार है, उसी प्रकार अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम है। अतः ग्राम केन्द्रित उत्पादन और वितरण की व्यवस्था होने से आभासी अर्थतंत्र नहीं बनते।
  3. जिस देश में ठोस अर्थव्यवस्था के स्थान पर आभासी अर्थव्यवस्था जितनी अधिक मात्रा में होती है, वह देश उतना ही अधिक गरीब होता है।
  4. कुछ अनिवार्यताओं को छोड़कर शेष सभी वस्तुओं के उत्पादन की व्यवस्था स्थानीय और विकेंद्रित होनी चाहिए। उत्पादन विकेंद्रित होने से मानव श्रम सुलभ होगा और लागत कम होगी। स्थानीय आवश्यकताएँ भी कम होगी।
  5. व्यक्ति को व्यवसाय का स्वामित्व मिलना चाहिए। विकेंद्रित व्यवस्था का यह बहुत बड़ा लाभ हैं। व्यक्ति स्वभाव से स्वतंत्र है। उसकी स्वतंत्रता की रक्षा हर हाल में होनी चाहिए। सार रूप में कहना हो तो व्यवसायों में नौकरियाँ कम से कम और स्वामित्व अधिकाधिक होना चाहिए।

उत्पादन में मनुष्य और यंत्र की भूमिका

सम्पूर्ण उत्पादन प्रक्रिया और वितरण व्यवस्था में मनुष्य की भूमिका मुख्य है। इसलिए सम्पूर्ण व्यवस्था मनुष्य केन्द्रित  और मनुष्य आधारित होनी अपेक्षित है। यंत्रों को मनुष्य अपने उपयोग के लिए बनाता है। इस तर्क के आधार पर यंत्र की भूमिका मनुष्य के सहयोगी की है। सभी यंत्र मनुष्य के अधीन रहें, जिससे उसकी सर्वोपरिता बनी रहे। व्यवसाय की ऐसी रचना होनी चाहिए।

यंत्रों की अधिकता के कारण मनुष्य बेकार हो जाता है। उसको काम नहीं मिलने के कारण वह भावात्मक रूप से कमजोर हो जाता है। उसके कौशलों में कमी आती है, और दूसरों पर अधीनता बढ़ती है। यंत्रों के बढ़ने से बड़े-बड़े कारखानों की आवश्यकता पड़ती है। उसे घर छोड़कर कारखानों में जाना पड़ता है। कारखानों की व्यवस्था के साथ अनुकूलन बनाना पड़ता है। इन सब कारणों से वह स्वाधीन नहीं रह पाता, यंत्र के अधीन होकर व्यवस्था का दास बन जाता है।

इसका एक दूसरा पहलू भी है। यंत्रों के निर्माण में जो ऊर्जा खर्च होती है, उससे बहुत अधिक पर्यावरणीय असन्तुलन निर्माण होता है। इस पर्यावरण असन्तुलन के कारण सम्पूर्ण सृष्टि का जीवन संकट में पड़ जाता है।

व्यवसाय, उत्पादन और पर्यावरण

भारतीय जीवन दृष्टि एकात्मता का सिद्धांत बतलाती है। इस दृष्टि के अनुसार मनुष्य का मनुष्य के साथ एकात्म सम्बन्ध है, साथ में प्राणी सृष्टि, वनस्पति सृष्टि और पांचभौतिक सृष्टि के साथ भी एकात्म सम्बन्ध है। परमात्मा की सृष्टि में मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है। इसलिए उसने अपने से कनिष्ठ सृष्टि के रक्षण व पोषण का दायित्व स्वीकारा है।

उत्पादन और व्यवसाय में सृष्टि के रक्षण व पोषण के दायित्व का स्मरण रहना आवश्यक है। इस दृष्टि से अधोलिखित बिन्दु विचारणीय है।

  1. प्रकृति से किसी भी प्रकार के संसाधन जुटाते समय प्रकृति का दोहन करना चाहिए, शोषण कभी नहीं करना चाहिए।
  2. प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ने वाले किसी भी उत्पादन तंत्र को अनुमति नहीं देनी चाहिए।
  3. मनुष्य का स्वास्थ्य खराब करने वाला उत्पादन तंत्र और वैसी वस्तुओं के उत्पादन की अनुमति नहीं होनी चाहिए।
  4. प्राणियों की हिंसा को बढ़ावा देने वाले उत्पादन तंत्र को भी अनुमति नहीं देनी चाहिए।
  5. सृष्टि की विविध प्रकार की चक्रीयता को तोड़ने वाला उत्पादन तंत्र भी नहीं होना चाहिए।

व्यवसाय व वितरण में राज्य की भूमिका

सम्पूर्ण अर्थतंत्र में समाज की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। व्यवसाय तंत्र का नियमन और नियंत्रण समाज के अधीन होना चाहिए, राज्य के अधीन नहीं। उत्पादन और व्यापार में राज्य को नहीं पड़ना चाहिए। मूल्य निर्धारण, वितरण व उत्पादन में व्यवसाय समूहों की स्वयं की व्यवस्था होनी चाहिए। देश की सुरक्षा से जुड़े विषयों, जैसे- शस्त्रास्त्र, अन्य युद्ध सामग्री आदि के उत्पादन, संग्रह और विनियोग की व्यवस्था राज्य के अधीन हो सकती है।

राज्य को कभी भी व्यापार नहीं करना चाहिए। जब राजा ही व्यापारी बन जाएगा तो अर्थव्यवस्था संकट में पड़ जाएगी। इसलिए हमारे यहाँ एक लोकोक्ति प्रचलित है- “जहाँ का राजा व्यापारी, वहां की प्रजा भिखारी” अंग्रेजी शासनकाल का यही काम था। राज्य ही सारा व्यापार करता था। कमाया हुआ सारा पैसा इंग्लैंड जाता था। परिणाम स्वरूप प्रजा कंगाल हो गई थी। अतः राज्य और अर्थ ये दोनों शक्तियाँ कभी भी एक के हाथ में नहीं होनी चाहिए। जब अर्थशास्त्र इन सिद्धांतों के अनुसार चलता है, तब वह सांस्कृतिक अर्थशास्त्र बनता है।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

और पढ़ेंभारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 58 (सांस्कृतिक अर्थशास्त्र, भाग-1)

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