दुनिया भर में लिपि विशेषज्ञ के नाते प्रसिद्ध श्री लक्ष्मण श्रीधर वाकणकर लोगों में बापू के नाम से जाने जाते थे। उनके पूर्वज बाजीराव पेशवा के समय मध्य प्रदेश के धार नगर में बस गये थे। उनके अभियन्ता पिता जब गुना में कार्यरत थे, उन दिनों 17 सितम्बर, 1912 को बापू का जन्म हुआ था।
ग्वालियर, नीमच व धार में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर बापू इंदौर आ गये। यहां उनका परिचय कई क्रांतिकारियों से हुआ। वे जिस अखाड़े में जाते थे, उसमें अगस्त 1929 में संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार आये थे। यहां पर ही मध्य भारत की पहली शाखा लगी, जिसमें बापू भी शामिल हुए थे। इस प्रकार वे प्रांत की पहली शाखा के पहले दिन के स्वयंसेवक हो गये।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा क्रांतिकारियों से बढ़ते सम्बन्धों से चिंतित पिताजी ने उन्हें अभियन्ता की पढ़ाई करने मुंबई भेज दिया। वहां उनका आवास बाबाराव सावरकर के घर के पास था। इससे उनके मन पर देशभक्ति के संस्कार और दृढ़ हो गये। पुणे में लोकमान्य तिलक द्वारा स्थापित केसरी समाचार पत्र के कार्यालय में पत्रकारिता का अध्ययन करते समय 1935 में उन्होंने संघ का द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण लिया। निशानेबाजी एवं परेड में वे बहुत तज्ञ थे। इसके बाद उज्जैन आकर उन्होंने दशहरा मैदान में शाखा प्रारम्भ की।
बापू वाकणकर ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भी शिक्षा पाई थी। वहां उनके गुरु प्रो. गोडबोले तथा श्री गोलवलकर ने उनके मन में स्वदेशी का भाव भरा। इससे प्रेरित होकर उन्होंने ‘आशा’ नामक उद्योग स्थापित कर सुगन्धित द्रव्य तथा दैनिक उपयोग की कई चीजें बनाईं। ये उत्पाद इतने अच्छे थे कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय विदेशी भी उन्हें खरीदने को लालायित रहते थे।
यह काम एक युवा उद्यमी को देकर बापू ने सिरेमिक्स के छोटे बर्तनों पर छपाई की सुगम तकनीक विकसित की। फिर इसे भी एक सहयोगी को देकर भारतीय लिपियों को संगणक (कम्प्यूटर) पर लाने के शोध में लग गये। उनकी प्रतिभा देखकर केन्द्र शासन ने उन्हें ‘लिपि सुधार समिति’ का सदस्य बना दिया। फिर भूटान, सिक्किम और श्रीलंका सरकार के आमन्त्रण पर उन्होंने वहां की स्थानीय लिपियों को भी सफलतापूर्वक कम्प्यूटरीकृत किया।
इसके बाद संगणक निर्माण में अग्रणी जर्मनी तथा डेनमार्क ने उन्हें अपने यहां बुलाया। उनके शोध की उपयोगिता देखकर बड़ोदरा के उद्योगपति श्री अमीन ने उन्हें आवश्यक आर्थिक सहायता देकर पुणे में अंतरराष्ट्रीय लिपि के क्षेत्र में शोध को कहा। इस प्रकार ‘इंटरनेशनल टायपोग्राफी इंस्टीट्यूट’ की स्थापना हुई। यहां ‘अक्षर’ नामक प्रकाशन भी प्रारम्भ हुआ। बापू के प्रयास से भारतीय लिपि के क्षेत्र में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। विश्व की अनेक भाषा एवं लिपियों के ज्ञाता होने से लोग उन्हें ‘अक्षरपुरुष’ और ‘पुराणपुरुष’ कहने लगे।
पद्मश्री से अलंकृत उनके छोटे भाई डा. विष्णु श्रीधर वाकणकर अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पुरातत्ववेत्ता थे। उन्होंने उज्जैन में इतिहास संबंधी शोध के लिए ‘वाकणकर शोध संस्थान’ स्थापित किया था। 1988 में उनके असमय निधन के बाद बापू उज्जैन में रहकर उनके अधूरे शोध को पूरा करने लगे। उन्होंने सरस्वती नदी के लुप्त यात्रा पथ को खोजने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। बापू ने गणेश जी की स्तुति में रचित ‘अथर्वशीर्ष’ नामक स्तवन का अध्ययन कर यह बताया कि आद्य अक्षर ‘ओम्’ में से लिपि का उदय कैसे हुआ है ?
आज संगणक और उसमें भारतीय भाषा व लिपियों का महत्व बहुत बढ़ गया है। इसे पर्याप्त समय पूर्व पहचान कर, इसके शोध में जीवन समर्पित करने वाले श्री वाकणकर का 15 जनवरी, 1999 को उज्जैन में ही निधन हुआ।
(संदर्भ : मध्यभारत की संघगाथा/पांचजन्य 7.2.1999)
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